छायावाद अाज कल हिन्दी-संसार में छायावाद की रचनाओं की अोर युवक दल की रुचि अधिकतर अाकर्षित है। दस-बारह वर्ष पहले जो भावनाएँ थोड़े से हृदयों में उदित हुई थीं, इन दिनों वे इतनी प्रबल हो गयी हैं कि उन्हीं का उद्घोष चारों ओर श्रुति-गोचर हो रहा है। जिस नवयुवक कवि को देखिये आज वही उसकी ध्वनि के साथ अपना कण्ठस्वर मिलाने के लिये यत्नवान् है। वास्तव में बात यह है कि इस समय हिन्दी भाषा का कविता-क्षेत्र प्रति दिन छायावाद की रचना की ओर ही अग्रसर हो रहा है। इस विषय में वाद-विवाद भी हो रहा है, तर्क-वितर्क भी चल रहे हैं, कुछ लोग उसके अनुकूल हैं, कुछ प्रति- कूल । कुछ उसको स्वर्गीय वस्तु समझते हैं और कुछ उसको कविता भी नहीं मानते। ये झगड़े हों, किन्तु यह सत्य है कि दिन-दिन छायावाद की कविता का ही समादर बढ़ रहा है। इसे देख कर यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसमें कोई ऐसी बात अवश्य है जिससे उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है और अधिक लोगों के हृदय पर उसका अधिकार होता जाता है।
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