खड़ी बोली और उसका पद्य ] ११८ [ 'हरिऔध' का कार्य नहीं है। जब हम सुनते हैं- 'न तत्र वाङ् गच्छति न मनो गच्छति'—ऐ बरत अजोयाल कयासो गुमानव वहम', तो चित्त चिन्तित हो जाता है। उत्कण्ठा द्विगुण हो जाती है। जब कान में यह ध्वनि पड़ती है- 'जेहि जाने जग जाइ हेराई'--'श्रांराकि ख़बर शुद ख़बरश वाज़ नयामद', तो मन कहता है कि यह क्या जटिल समस्या है ? क्या प्रपंच है । फिर यह अाकाशवाणी होती है—'तत्ब्रह्मासि, ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्म वनापरः 'सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन', तो नेत्रों के सामने से एक महान् अावरण हट-सा जाता है और मन एक अनिर्वचनीय आनन्द में निमग्न हो जाता है; किन्तु तो भी समाधान की पराकाष्ठा नहीं होती । जब हमको बतलाया जाता है 'लव इज़ गॉड, गॉड इज़ लव' 'टु सी गॉड इज़ टु सी ऐज़ गॉड सीज़'- 'दिल के आइने में है तस्वीरे' यार जब जरा गरदन झुकाई देख ली','न मोक्षो नभसः पृष्ठे न पाताले न भूतले, मोक्षोह्नि मनसोशुद्धिः सम्यग्ज्ञान विबोधितम्'-तब चित्त को महान् आश्वासन होता है; परन्तु जिज्ञासा का निराकरण फिर भी नहीं होता। प्रयोजन यह कि इस प्रकार की अनेक बातें हैं, जो हमको संसार का रहस्योद्घाटन के लिए चंचल, अातुर और मननशील बनाती हैं । समय-समय पर इन समस्त विषयों में जब जिसको आभास मिला है, जो अनुभव हुआ है उसने उसको अपने विचारानुसार प्रकट करने की चेष्टा की है। जो नहीं बतलाया जा सकता है उसको कैसे बतलाया जावे, यदि और कुछ नहीं, तो उसके विषय में कुछ संकेत ही किया जावे, उसकी छाया ही दिखलायी जावे। इसी उद्योग और भाव-प्रकाशन की रीति का परिणाम रहस्यवाद और छायावाद है। मान्य वेदों के अनेक वचन, उपनिषदों के अनेक वाक्य, वेदांतदर्शन के कतिपय प्रसंग, मौलाना रूम की मनसवी, उमर खय्याम और हाफिज की बहुत-सी रचनाएँ और हमारे यहाँ के सन्तों की अनेक वाणियाँ इस प्रकार की हैं और उनमें बहुत कुछ तत्व भरा हुआ है। वर्तमान महानुभावों में संसार भर में कवि सम्राट
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