खड़ी बोली और उसका पद्य ] ११५ [ 'हरिऔध' बहुत कुछ खुल गयी हैं और हम जननी-जन्मभूमि को पहचानने लगे हैं. हमारे हृदय की प्राकृति आज भी भावमयी है; किन्तु उसमें आत्म-गौरव, श्राम-रक्षा, आत्मानुभूति के स्वर भरे हुए हैं । कविकुल-कल्पना की इति-श्री कामिनि-कमनीया में ही नहीं हो जाती, हास-विलास में ही उसका चमत्कार नहीं समाप्त हो जाता है, काम-कलाओं के प्रदर्शन में ही उसकी विलक्षणता नहीं पर्यवसित होती है। अब वह स्वाधीनता के गगन में उड़ती है । सामाजिक अवस्था के उदधि-गर्भ में प्रवेश करती है, जातीयता के मन्त्र से अभिमन्त्रित होती है, जाति-अधःपात पर रोती है और विदीर्ण हृदयों के दुःखों से स्वयं विदीर्ण-हृदय बनती है। कवि की प्रतिभा अाज अन्तमुखी है, वह हृदयों को टटोलती है, उसके सूक्ष्म भावों को विचारती है, मनो- विज्ञान के रहस्यों का उद्घाटन करती है और मर्मस्थलों के मर्म जानने में संलग्न रहती है। यह शुभ लक्षण है, विचार से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, भाव ही अभाव का अनुभव करता है, चेष्टा ही सफलता की जननी है । जो हृदयोद्गार होता है, अन्तर का उच्छवास होता है, वही लेखनी का विषय होता है, वही पथ बाध्य होकर निर्जीव को सजीव कर देता है। रगों में बिजली भरता है और मृतकप्राय जाति के लिये मृत- संजीवनी का काम देता है। देश का सौभाग्य है जो आज हम लोगों में इस प्रकार का परिवर्तन हो गया है । खड़ी बोली के पद्यों में कवितागत कितनी ही त्रुटियाँ क्यों न हों; किन्तु वह इसलिए आदरणीय है कि उसने देश और जाति के रोग को पहचाना है और उसकी चिकित्सा में लग्न है। फिर भी मैं यह कहूँगा कि उसको जितना अग्रसर होना चाहिए अब तक वह उतना अग्रसर नहीं हुई है । जो विशाल कार्य उसको करना है उसका एक लघु भाग भी अब तक वह नहीं कर सकी है, अबतक वह सर्वतोमुखी नहीं है और न वह उतनी श्री-सम्पन्न है जितना उसे होना चाहिये। इसके अनेक कारण हैं। तथापि हमको हतोत्साह न होना चाहिये । अाशा का प्रफुल्लित उद्यान हमारे सामने है। उसमें हमको वे
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