पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/११०

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खड़ी बोली और उसका पद्य] १११ . [ 'हरिऔध', करना चाहिये और तत्पश्चात् उसके कोमल और मधुर होने की मीमांसा करनी चाहिये । एक बार एक खड़ी बोली के आलोचक सज्जन ने कहा कि खड़ी बोली की कविता तो उर्दू इतनी भी कोमल और मधुर नहीं होती। मैंने कहा कि क्यों ? उन्होंने कहा कि उसमें श्रुतिकटु शब्द बहुत आये हैं। मैंने कहा कि उर्दू में तो श्रुतिकटु शब्दों की भरमार होती है, यह दूसरी बात है कि उर्दू पर कृपादृष्टि होने कारण आप उसके श्रुतिकटु शब्दों को श्रुतिकटु न मानें । यह कहकर मैंने यह शेर पढ़ा जादो रहे वका गर ज़ फेना मिलता नहीं। है खुदो जब तक कि इन्साँ में खदा मिलता नहीं ॥ और उनका ध्यान फेना, गर, बका, खुदी व ख़ुदा पर दिलाया। वे मेरी बात सुनकर हँसने लगे। इतना लिखने का प्रयोजन यह कि खड़ी बोली की कविता को जितना कर्कश बतलाया जाता है और जिस प्रकार तिल को ताड़ बनाया जाता है, वह सत्य नहीं हैं । खड़ी बोली में भावमय रचनाएँ भी हुई हैं और उनमें मनोहर और हृदयग्राही कृतियाँ भी हैं । यह दूसरी बात है कि उन्हें आदर की दृष्टि से न देखा जाय और उनकी अपेक्षा की जाय । मैं उदाहरणों द्वारा इस विषय को सिद्ध करता, किन्तु लेख बढ़ने से डरता हूँ, तथापि एक उदाहरण उपस्थित करता हूँ। यह किसी खड़ी बोली के लब्धप्रतिष्ठ कवि की कविता नहीं है, तो भी आप देखिये इसमें कुछ तत्व है या नहीं, यह मर्म-स्पर्शी है या नहीं और इसकी पंक्तियों में सजीवता आप पाते हैं या नहींदेश की ओर से कान बहरे किये आँख रखते हुए हाय अन्धे बने । लाख घर-घर में रोना पड़ा पर यहाँ रात दिन नाच गाना बजाना हुआ ॥ .