खड़ी बोली और उसका पद्य] १०६ । [ 'हरिऔध' है, उनमें से प्रत्येक ने समय की गति को पहचाना, देश-काल के प्रत्येक विषय का मनन किया और उसपर अपनी प्रोजस्विनी और भावमयी लेखनी का संचालन इस प्रकार किया कि हिन्दी के पद्य-संसार में नवयुग का आविर्भाव हो गया । इन लोगों ने कविता-स्रोत की गति बदली, उसमें देशानुराग, जाति-प्रेम और जाति-गौरव के राग अलापे, उसके संकीर्ण पथ को बहुत कुछ प्रशस्त बनाया और उसके परिष्करण तथा नियमन में दृष्टि- अाकर्षण योग्य कार्य कर दिखलाया । खड़ी बोली की वर्तमान शैली इन्हीं लोगों के सदुद्योग और सहृदयता का फल है और आज दिन वह इन्हीं नवयुग प्रवर्तकों के आदर्श से आदर्शवी है। खड़ी बोली किसे कहते हैं, उसका यह नामकरण कैसे हुआ, इसका इतिहास क्या है ? इसका दिग्दर्शनमात्र मैं यहाँ करूँगा। हिन्दी में सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग अपने ग्रन्थों में श्रीमान् लल्लूलालजी ने किया है। इसके उपरान्त जिस शैली में वर्तमान हिन्दी भाषा का गद्य लिखा जाता है, उसको अपने 'हिन्दी भाषा' नामक ग्रंथ में स्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्र ने भी खड़ी बोली बतलाया है। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह इस विषय में कहीं कुछ लिखते नहीं पाये गये, और यदि लिखा है तो वह मेरे दृष्टिगोचर नहीं हुया । भारतेन्दुजी के बाद के लेखकों ने प्रायः यथावसर वर्तमान हिन्दी-गद्य के लिए खड़ी बोली का प्रयोग किया है; परन्तु अनेक लेखकों ने इस शब्द पर कटाक्ष भी किया है। स्वर्गीय 'प्रेमघन' महोदय खड़ी बोली के स्थान पर 'खरी बोली' लिखना पसंद करते थे । मेरे एक पद्य-ग्रंथ की आलोचना करते हुए उन्होंने उस पद्य-ग्रंथ की भाषा को खरी बोली लिखा है। जिस समय ब्रजभाषा और खड़ी बोली के पद्यों को लेकर तुमुल आन्दोलन प्रारम्भ हुआ और उभय. दल के सहृदय-वृन्द अपने-अपने पक्ष को लेकर विवाद-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए, उस समय इस शब्द का प्रयोग व्यापक रूप से हुआ और ब्रजभाषा अथवा खड़ी बोली की भिन्न-भिन्न सीमा निर्धारित हो गयी। पहले यह सीमा
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