ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] १०३ [ 'हरिऔध' अब रही कवितागत लालित्य और सौंदर्य इत्यादि की बातें । इस विषय में मेरा इतना ही निवेदन है कि क्या श्रुतिधर श्रीमान् पंडित श्रीधर पाठक के भारत-गीत में भारतीयता का राग नहीं है ? क्या शुभंकर श्रीमान् पंडित नाथूरामशंकर शर्मा की रचनाओं में रचना-चातुरी दृष्टिगत नहीं होती ? क्या विद्वद्वर श्रीमान् पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के वाग्विलास में विद्वत्ता नहीं विलसती ? क्या ललितकण्ठ श्रीमान् लाला भगवानदीन गुले लाला अथवा गुल्लाला नहीं खिलाते ? क्या काव्य- विनोद श्रीमान् पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय की वर-वचनावली विवध विनोदमयी नहीं होती ? क्या रामचरित-चिन्तामणिकार श्रीमान् पण्डित रामचरित उपाध्याय की कृति में चारु-चरित चित्रण नहीं होता ? क्या निरूपण पटु श्रीमान् पण्डित रूपनारायण पाण्डेय की रूपक-पटुता अनु- रूप नहीं होती? क्या भारत-भारतीकार श्रीमान् बाबू मैथिलीशरण गुप्त की भारती विविध माव-भरित नहीं पायी जाती ? क्या शंकर नगरनिवासी श्रीमान् बाबू जयशंकर 'प्रसाद' की कविता के प्रसादमयी होने में संदेह है ? क्या स्नेह-भाजन श्रीमान् पण्डित गयाप्रसाद 'सनेही' की सुलेखनी सरसता के साथ नहीं सरसती ? क्या पवित्रामात्मा 'भारतीय प्रात्मा' की अनूठी उक्ति यात्म-विस्मृतिकारिणी नहीं होती ? क्या परम सहृदय भारतीय-हृदय का कविल्व हृदय विभक्त नहीं करता ? क्या रमणीय मानस श्रीमान् पण्डित रामनरेश त्रिपाठी की मानसिकता में नवरसमयी रसिकता नहीं मिलतो ? क्या हृदयवान् सुकवि श्रीमान् पण्डित गोकुलचन्द्र की चारुचित्तता अरोचकता को अर्द्धचन्द्र नहीं देती ? इसका उत्तर सहृदय दें। मैं इतना ही कहूँगा कि इन सजनों की रचनाएँ रुचिर हैं। यदि यह समय उनके अनुकूल नहीं है तो कोई अनुकूल समय भी आयेगा। एक समय था, जब भावुक प्रवर भवभूति को यह कहना पड़ा था :- ये नाम के चिदिहनः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्तु ते किमपितान्प्रति नैष यत्नः
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