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काव्य के विभाग का उस अपरिचित पीड़ित व्यक्ति से प्रेम था, यह न कहा जाता है न कहा जा सकता है। कहा यहीं तक जा सकता है कि उसकी अंतःप्रकृति में सामान्यतः सब जीवों के प्रति जो राग की वासना निहित थी उसी के प्रभाव से करुणा उत्पन्न हुई जिसने उसे व्याकुल और सहायता के लिये सन्नद्ध किया। यह कहा जा चुका है कि शुद्ध करुणा के उद्रेक के लिये पीड़ित आलंबन में किसी प्रकार की विशेषता अपेक्षित नहीं । यह बात नहीं है कि जिससे प्रेम हो इसी की पीड़ा देख करुणा उत्पन्न हो । करुणा बैर-प्रीति कुछ नहीं देखती । करुणा करनेवाले के मन में केवल यही रहता है कि उसके समान ही सुख-दुःख अनुभव करने वाला कोई प्राण हैं जिसे कष्ट या पीड़ा पहुँच रही है। इससे स्पष्ट है कि करुणा प्रेस से एक स्वतंत्र भाव है। वह रक्षा का कार्य प्रेम के संचारी के रूप में करती हो, यह बात भी नहीं है यह कार्यं उसका अपना है। उसका मुल चाहे अंतर्निहित राग की वासना में हो, पर कविता अव्यक्त भूल को लेकर नहीं चलती, व्यक्त प्रसार को लेकर चलती है। कविता अभिव्यंजना है। वह अभिव्यक्ति या विकास को लेकर चलती हैं। इसी दृष्टि से हमारे यहाँ के कवियों ने लोक रक्षा के विधान में करुणा को ही बीजभाव रखा है। करुणा से रक्षा का विधान होता है। प्रेम से पालन और रंजन का । रक्षा और पालन में अंतर अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । बिष्णु भगवान् जगत् का पालन तो हर समय करते रहते हैं, पर रक्षा समय समय पर किया करते हैं। रक्षा आपद्ग्रस्त की होती है, पालन रक्षित का होता है। बच्चे को समय पर दूध पिलाना पालन है ; भूख से मरते को खिला देना रहा है। लोकरक्षा का विधान किसी आई हुई आपत्ति से बचाने का