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रस-मीमांसा



रहनेवाली वस्तुओं के प्रति राग और दुःख देनेवाली वस्तुओं के प्रति द्वेष का बीज सबके हृदय-क्षेत्र में ढँका रहता है। यही राग जब व्यक्त होकर किसी विशेष व्यक्ति की ओर पहले-पहल उन्मुख होता है तब ‘लुभाना' कहलाता है और जब उस विशेष में जाकर स्थिर हो जाता है तब प्रेम कहा जाता है ।' सीधी बात यह कि वासनात्मक अवस्था से भावात्मक अवस्था में आया हुआ राग ही अनुराग या प्रेम है। राग वास्तव में व्यक्तिबद्ध नहीं होता। किसी के रूप, गुण आदि का उत्कर्ष सुनकर जो पूर्वराग होता है वह भी उत्तेजित राग ही रहता है । यद्यपि उत्तेजना व्यक्ति विशेष के ही उत्कर्ष का परिचय पाकर होती है पर पूर्वराग की दशा में प्रेम की अनन्यता और पूर्ण एकनिष्ठता नहीं रहती; वह पीछे प्राप्त होती है। किसी के प्रति पूर्वराग उत्पन्न होने पर यह संभावना रहती हैं कि अन्य समय उससे अधिक उत्कर्षवाले किसी दूसरे का परिचय पाकर वह उस पर हो जाय।

राग मिलानेवाली वासना है और द्वेष अलग करनेवाली । रासायनिक मूल द्रव्यों के रोग से ही सृष्टि का विकास होता है । राग की अभिव्यक्ति विशेष, दांपत्य और वात्सल्य भाव, से ही सजीव प्राणियों की परंपरा चिरकाल से चलती आ रही है। प्रेम में पालन को प्रवृत्ति प्रत्यक्ष है। माता का प्रेम शिशु का पालन करता है। पर प्रेम द्वारा पालन का विधान एक परिमित क्षेत्र के भीतर तथा अबाध और निर्विघ्न दशा में ही संभव

-१ [विस्तार के लिये देखिए 'लोभ और प्रीति' नामक निबंध-चिंतामणि पला भाग, पृष्ठ ६४ । ]