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रस-मीमांसा

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रस-सीमांसा करती हुई बिल्लियों में कभी कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन करते हैं जिसकी छाया महलों और दरबारों तक नहीं पहुँच सकती। श्रीमानों के शुभागमन पर पद्य बनाना, बात बात में उनको बधाई देना, कवि का काम नहीं। जिनके रूप या कर्मकलाप जगत् और जीवन के बीच में उसे सुंदर लगते हैं उन्हीं के वर्णन में वह् ‘स्वांतःसुखाय' प्रवृत्त होता हैं।

मनुष्य के लिये कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी न किसी रूप में, पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हों, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा। बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मंडल बाँधता चला आ रहा है जिसके भीतर बँधा बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का संबंध भूला सा रहता हैं। इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर रहता है। इसी से अंत:प्रकृति में मनुष्यता को समय समय पर जगाते रहने के लिये कविता मनुष्यजाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी । जानवरों को इसकी जरूरत नहीं ।