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। ३५५३ काव्य रहे हैं जो वण्र्य वस्तु का निर्देश करते हैं और अलंकार नहीं कहे जा सकते-जैसे, स्वभावोक्ति, उदात्त, अत्युक्ति । स्वभावोक्ति को लेकर कुछ अलंकार-प्रेमी कह बैठते हैं कि प्रकृति का वर्णन भी तो स्वभावोक्ति अलंकार ही है। पर स्वभावोक्ति अलंकारकोटि में आ ही नहीं सकती । अलंकार वर्णन करने की प्रणाली है। चाहे जिस वस्तु या तथ्य के कथन को हम किसी अलंकार प्रणाली के अंतर्गत ला सकते हैं। किसी वस्तु विशेष से किसी अलंकार-प्रणाली का संबंध नहीं हो सकता। किसो तथ्य तक वह परिमित नहीं रह सकता । वस्तु-निर्देश अलंकार का काम नहीं, रस-व्यवस्था का विषय है। किन किन वस्तुओं, चेष्टाओं या व्यापारों का वर्णन किन किन रसों के विभावों और अनुभावों के अंतर्गत आएगा, इसकी सुचना रसनिरूपण के अंतर्गत ही हो सकती हैं । | अलंकारों के भीतर स्वभावोक्ति का ठीक ठीक लक्षणनिरूपण हो भी नहीं सका है। काव्यप्रकाश की कारिका में यह लक्षण दिया गया है । स्वभावोक्तिस्तु हिम्भादेः स्वक्रियारूप-वर्णनम् ।। अर्थात् ‘जिससे बालकादिकों की निज की क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति हैं। प्रथम तो बालकादिक पद की व्याप्ति कहाँ तक है, यही स्पष्ट नहीं । अतः यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के रूप और व्यापार का वर्णन स्वभावोक्ति है। खैर, बालक की रूपचेष्टा को लेकर हो स्वभावोक्ति की अलंकारता पर विचार कीजिए। वात्सल्य में बालक के रूप आदि का वर्णन आलंबन विभाव के अंतर्गत और उसकी चेष्टाओं का वर्णन उद्दीपन विभाव के अंतर्गत होगा। प्रस्तुत 83