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रस-मीमांसा


रस-मीमांसा ‘अत्याचार' शब्द के अंतर्गत न जाने कितने व्यापार आ सकते हैं, अतः उसे सुनकर या पढ़कर संभव है कि भावना में एक भी व्यापार स्पष्ट रूप से न आए या आए भी तो ऐसा जिसमें मर्म को क्षुब्ध करने की शक्ति न हो।

उपर्युक्त विचार से ही किसी व्यवहार या शास्त्र के पारिभाषिक शब्द भी काव्य में लाए जाने योग्य नहीं माने जाते । हमारे यहाँ के आचार्यों ने पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग को ‘अप्रतीतत्व' दोष माना है। पर दोष स्पष्ट होते हुए भी चमत्कार के प्रेमी कब मान सकते हैं ? संस्कृत के अनेक कवियों ने वेदांत, आयुर्वेद, न्याय के पारिभाषिक शब्दों को लेकर बड़े बड़े चमत्कार खड़े किए हैं या अपनी बहुज्ञता दिखाई है। हिंदी के किसी मुकदमेबाज कवित्त कहनेवाले ने 'प्रेमफौजदारी' नाम की एक छोटी सी पुस्तक में श्रृंगाररस की बातें अदालती कार्रवाइयों पर घटाकर लिखी हैं। 'एकतरफा डिगरी', 'तनकीह' ऐसे ऐसे शब्द चारों ओर अपनी बहार दिखा रहे हैं, जिन्हें सुनकर कुछ अशिक्षित या भद्दी रुचिवाले वाह वाह भी कर देते हैं।

शास्त्र के भीतर निरूपित तथ्य को भी जब कोई कवि अपनी रचना के भीतर लेता है तब वह पारिभाषिक तथा अधिक व्याप्तिवाले जाति-संकेत शब्दों को हटाकर उस तथ्य को व्यंजित करनेवाले कुछ विशेष मार्मिक रूपों और व्यापारों का चित्रण करता है। कवि गोचर और मूर्त रूपों के द्वारा ही अपनी बात कहता है। उदाहरण के लिये गोस्वामी तुलसीदासजी के ये वचन लीजिए-

जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।

इसमें माया में पड़े हुए जीव की अज्ञानदशा का काव्य-पद्धति पर कथन है। और देखिए । प्राणी आयु भर क्लेश-निवारण