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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा सजीव आकार-प्रदान का विधान प्रायः सब देशों के कवि-कर्म में पाया जाता है। कुछ उदाहरण देखिए( क ) धन्य भूमि बनपंथ पहारा ।। जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धारा ।—तुलसी । ( ख ) मन हु उमगि अँग अँग छवि छलकै ।—तुलसी । (ग ) चुनरि चाक चुई सी परे। (घ ) बनन में बागन में बगरो बसंत है ।-पद्माकर । ( है ) वृंदावन बागन पै बसंत बरसो परे ।—पद्माकर । ( च ) हौं तो स्यामरंग में चोराय चित चोराचोरी, बोरत तो बोल्यो पै निचोरत बनै नहीं ।—पद्माकर । ( छ ) एहो नंदलाल ! ऐसी व्याकुल परी है माल, हाल ही चलौ तौ चलौ, जोरे जुरि जायगी। कहै पद्माकर नहीं तो ये झकोरे लगे, और लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जयिगी । तौ ही लगि चैन जौ लौ चेतिई न चंदमुखी, | चेतैगी कहूँ तो चाँदनी में चुरि जायगी । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वस्तु या तथ्य के पूर्ण प्रत्यक्षीकरण तथा भाव या मार्मिक अंतर्वृत्ति के अनुरूप व्यंजना के लिये लक्षणा का बहुत कुछ सहारा कवि को लेना पड़ता है। भावना को मूर्त रूप में रखने की आवश्यकता के कारण कविता की भाषा में दस विशेषता यह रहती है कि उसमें जाति- . संकेतवाले शब्दों की अपेक्षा विशेष-रूप-व्यापार-सूचक शब्द अधिक रहते हैं। बहुत से ऐसे शब्द होते हैं जिनसे किसी एक का नहीं बल्कि बहुत से रूपों या व्यापारों का एक साथ चलता सो अर्थग्रहण हो जाता हैं। ऐसे शब्दों को हम जाति-संकेत कह