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रस-मीमांसा

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रस मीमांसा या अंधकार का नाश करने में प्रवृत्त सूर्य कहीं उन्हें काला देख उनका भी नाश न कर दे। भोजप्रबंध तथा और और सुभाषित-संग्रहों में इस प्रकार की उक्तियाँ भरी पड़ी हैं। केशव की रामचंद्रिका में पचीसों ऐसे पद्य हैं जिनमें अलंकारों की भद्दी भरती के चमत्कार के सिवा हृदय को स्पर्श करनेवाली या किसी भावना में मग्न करनेवाली कोई बात न मिलेगी। उदाहरण के लिये पताका और पंचवटी के ये वर्णन लीजिए पताका अति सुंदर अति साधु । थिर न रइति पल अाधु। परम तपोमय मानि । दंडधारिणी जानि ।। | पंचवटी बेर भयानक सी अति लगे । अर्क-समूह जहाँ जगमगै । पांडव की प्रतिमा सम लेखौ । अर्जुन भीम महामति देखौ ।। है सुभगा सम दीपति पूरी । सिंदुर औ तिलकावलि रूरी । राजति है यह ज्यों कुलकन्या । धाय विराजति है सँग धन्या ।। क्या कोई भावुक इन उक्तियों को शुद्ध काव्य कह सकता है ? क्या वे उसके मर्म का स्पर्श कर सकती हैं ? ऊपर दिए अवतरणों में हम स्पष्ट देखते हैं कि किसी उक्ति की तह में उसके प्रवर्तक के रूप में यदि कोई भाव या मार्मिक अंतर्वृत्ति छिपी है तो चाहे वैचित्र्य हो या न हो, काव्य की सरसता बराबर पाई जायगी । पर यदि कोरा वैचित्र्य या चमत्कार ही चमत्कार है तो थोड़ी देर के लिये कुछ कुतूहल या १ [ देखिए पीछे, पृष्ठ १४ ।]