पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४४०

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परिशिष्ट अंतर्मुक्त हैं और भावों में संबद्ध संस्कार, जैसे भय में भागने का संस्कार ( इंस्टिंक्ट= संस्कार । टेंडेंसी= प्रवृत्ति ); आत्मप्रदर्शन और आत्माभिभव के वेग।। मूल भाव-भय, क्रोध, ग्लानि, हर्ष, दुःख । जिज्ञासा में यद्यपि जीवनवेग के अधिक लक्षण हैं फिर भी इसे मनोबेग कहते हैं। हर्ष और दुःख के अंतर्गत यदि संस्कार नहीं तो कम से कम सूक्ष्म प्रवृत्तियाँ अवश्य होती हैं। उनमें से कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं पहले से रहनेवाली किन्हीं प्रक्रियाओं की रक्षा । शिशु के द्वारा रतन ( चुचुक ) की खोज और उसका पान बुभुक्षा के संस्कार या इंद्रियवेग हैं। तब तक पीते रहना जब तक सुख की अनुभूति होती हैं—यह हर्षे भाव की प्रवृत्ति है। इस प्रकार हर्ष और खेद या तो (१) किसी दूसरे जीवनवेग के अनुवर्ती हैं। अथवा (२) नहीं । दूसरे के उदाहरण भद्दे और सुंदर आलंवनों में मिल सकते हैं। क्रोध, भय, हर्ष और दुःख एक दूसरे से सूक्ष्मतथा संबद्ध भी हैं। स्थायीभावों का चक्र प्रेम-आलंबन और परिणाम के अनुरूप इच्छारहित कर्म और इच्छारहित चरित्र ; भाव के विशेष स्वरूप के अनुरूप नहीं । दो अत्यंत विपरीत प्रकार-( १ ) आत्मरक्षा की प्रवृत्ति । (२) जातिरक्षा की प्रवृत्ति । (३) यद्यपि बच्चों का भरण-पोषण करते हुए माता अपने जीवनवेग की परितुष्टि भी करती है किंतु उसका यह संस्कार इच्छारहित होता है । इसलिये करुणा को इच्छारहित प्रेरणा न मानना चाहिए, जैसा सामान्यतया माना जाता है।