पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४३८

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परिशिष्ट १३५ प्रधान भाव या प्रधान भाव संचारी = = (५) “हे नक्षत्रों से भूपित रात्रि ! मैं तेरा प्रभात नहीं चाहता । अयोध्या १३ ।। (६) सांग रूपक-“हे राम ! मेरे मन से उत्पन्न यह शोक रूप अग्नि, जो तुम्हारे अदर्शन रूप वायु से बढ़कर, विलाप दुःख रूप. इंधन से और आँसू रूप घृत से प्रदीप्त और चिंता श्रम रूप धूम से पूर्ण है मुझे भस्म कर देंगी। अयोध्या २४ ।। | (७) रति-भाव का अमर्य-ऐसा राम का वचन सुन ग्रियवादिनी वैदेही प्रेमपूर्वक क्रुद्ध हो पति से वोली । अयोध्या २७ । | Ald [ जोड़िए]-‘कोकिल-कंठ' कहकर कवि कोकिल की वर्ण आकृति की कल्पना जगाना नहीं चाहता, मधुर स्वर की कल्पना जगाना चाहता है। मोहमापेंदिवान्भूयः शोकोपहृतचेतनः ।। चिरेण तु नृपः संज्ञा प्रतिलभ्य सुदुःखितः ।। ६ ।। ( वहीं ) ] १ [न प्रभातं त्वयेच्छामि निशे नक्षत्रभूषिते ।। १७ ।। ( वहीं ) । ३ [ अयं तु मामात्मभवस्तवादर्शनमारुतः ।। विलापदुःखसमिधौ रुदिताशुहुताहुतिः ।। ६ ।। चिन्ताबाष्पमहाभूमस्तवागमनचिन्तनः ।। कर्शयित्वाधिकं पुत्र निःश्वासायाससंभवः ।। ७ ।। त्वया विहींनामिह मां शोकाग्निरतुलो महान् ।। प्रधच्यांत यथा कक्ष्यं चित्रभानुद्दिमात्यये ।। ८ ।। ( वही )] ३ [ एवमुक्ता तु वैदेहीं प्रियाही प्रियवादिनी । प्रणयादेब संक्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत् ।। १ ।। ( वही ) ।