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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा अधिकतर परंपराभुक्त रचनाओं में बेढंगा प्रयोग हुआ है जिससे न तो उच्च कोटि की कोई अनुभूति ही होती है और न कल्पना को ही कोई सहारा मिलता है। कल्पनात्मक विधान से भी राग की उत्पत्ति होती है, पर अप्रत्यक्ष रूप में। कुछ लोग कल्पनात्मक पक्ष पर ही जोर देते हैं और कुछ भावात्मक पक्ष पर। इसका समाधान इस प्रश्न के उत्तर से हो सकता है कि नाना प्रकार के दृश्य पदार्थ हमारी अनुभूति जगाया करते हैं या अपनी अनुभूति को चरितार्थ करने के लिये हमी उन्हें देखना चाहते हैं। * प्रश्न–कुरूप स्त्री के प्रति आत्मत्यागमूलक प्रेम के संबंध में क्या कहा जायगा जैसा फारसी के आख्यानों में मजनूं का लैला के प्रति था। | उत्तर–पात्र में प्रदर्शित अनुभूति की गहराई अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव डालती है । साधारणीकरण की दो प्रकार की व्याख्याएँ संभव हो सकती हैं-( १ ) आश्रय के साथ तादात्म्य, (२) आलंबन का सामान्य रूप से कथन । आलंकारिक लोग कदाचित् दूसरा मत मानते थे। उनकी दृष्टि रति-भाव तक ही परिमित थी। क्योंकि इस दृष्टि से उसका स्वरूप विशिष्ट होता है। प्रलय संचारी है, सात्विक नहीं। . अनुभावों के भेदों (कायिक, मानसिक इत्यादि ) में से मानसिंक को पृथक् कर देना चाहिए। प्राचीनों ने यह भेद नहीं माना है। उद्दीपन दो प्रकार के होते हैं-आलंबनगत और आलंबनबाह्य ।