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रस मीमांसा

जिनकी प्रतीति या जिनकी भावना हमारे मन में कुछ देर टिकने ही नहीं पाती और एक मानसिक आपत्ति सी जान पड़ती है । जिस वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से तदाकार-परिणति जितनी ही अधिक होगी उतनी ही वह वस्तु हमारे लिये सुदर कहीं जायगी । इस विवेचन से स्पष्ट है कि भीतर बाहर का भेद व्यर्थ है। जो भीतर है वहीं बाहर हैं।

यही बाहर हँसता-खेलता, रोता-गाता, खिलता-मुरझाता जगत् भीतर भी हैं जिसे हम मन कहते हैं। जिस प्रकार यह जगत रूपमय और गतिमय है उसी प्रकार मन भी । मन भी रूप-गति का संघात ही है। रूप मन और इंद्रियों द्वारा संघटित हैं या मन और इंद्रियाँ रूपों द्वारा, इससे यहाँ प्रयोजन नहीं । हमें तो केवल यही कहना है कि हमें अपने मन का और अपनी सत्ता का बोध रूपात्मक ही होता है ।

किसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से हमारी अपनी सत्ता के बोध का जितना ही अधिक तिरोभाव और हमारे मन की उस वस्तु के रूप में जितनी ही पूर्ण परिणति होगी उतनी ही बढ़ी हुई हमारी सौंदर्य की अनुभूति कही जायगी । जिस प्रकार की रूपरेखा या वर्णविन्यास से किसी की तदाकारपरिणति होती है उसी प्रकार की रूपरेखा या वर्ण-विन्यास उसके लिये सुंदर है। मनुष्यता की सामान्य भूमि पर पहुँची हुई संसार की सब सभ्य जातियों में सौंदर्य के सामान्य आदर्श प्रतिष्ठित हैं। भेद अधिकतर अनुभूति की मात्रा में पाया जाता है। न सुंदर को कोई एकबारगी कुरूप कहता हैं और न बिलकुल कुरूप को सुंदर। जैसा कि कहा जा चुका है, सौंदर्य का दर्शन मनुष्य मनुष्य ही में नहीं करता है, प्रत्युत पल्लव-गुंफित पुष्पहास में, पक्षियों के पक्षजाल में, सिंदूराभ सांध्य दिगंचल