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रस-मीमांसा

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३९० रस-मीमांसा होती हैं या अलंकार के रूप में। इनमें से प्रत्येक या तो स्वतःसंभबी होगी या कविप्रौढोक्तिसिद्ध ( कल्पित ), जैसे कौओं को सफेद करनेवाली चंद्रिका' जो कहीं उपलब्ध नहीं होती। इन चारों के विभिन्न प्रकार के मिश्रणों द्वारा बारह प्रकार की अर्थशत्तत्युद्भव ध्वनि हो सकती है। ये बारही प्रकार प्रबंध ( जैसे गृध्रगोमायुसंवाद ) में भी हो सकते हैं। इसलिये अर्थशक्युद्भव ध्वनि के चौबीस भेद हो जाते हैं । उदाहरण| स्वतःसंभवी वस्तु से वस्तु व्यंग्य-‘इस बालक के पिता इस कुएँ का खारी पानी न पीएँगे । मैं झटपट तमालाकुल सीते पर जाती हैं। पुराने नरसल की गाँठ देह में खरोट डालें तो डालें । ‘नरसल की खरोट स्वतःसंभवी वस्तु है । इसके द्वारा भावी तिचिह्न के गोपन की व्यंजना हो रही है। स्वतःसंभवी वस्तु से व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य-दृक्षिण दिशा में जाने से ( दक्षिणायन होने से ) सूर्य का तेज़ भी मंद हो जाता है। परंतु उसी दिशा में रघु का प्रताप पांड्य देश के राजाओं से नहीं सहा गया । यहाँ संभवी वस्तु है सूर्य की मंदता और रघु के समक्ष १ [ इष्टिं हे प्रतिवेशिनि क्षणमिहाप्यस्मद्गृहे दास्यसि प्रायैणात्य शिशोः पिता न विरसाः कौपीरपः पास्यति । एकाकिन्यपि यामि सवरमितः स्रोतस्तमालाकुलं नीरन्ध्रास्तनुमा लिखन्तु जरठच्छेदा नलग्रन्थयः ॥ वहीं, पृष्ट १ ३ [ दिशि मन्दावते तेजो दक्षिणस्यां रबेरपिं ।। तत्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रताप न विपेदिरे ॥ -वहीं । ]