पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३७०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अप्रस्तुत रूप-विधान ३५७ ‘सांग रूपक' के गुण-दोष का भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोप सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर ही होता है । अधिकतर देखा जाता है कि निरंग रूपक' में तो सादृश्य और साधर्म्य का ध्यान रहता है पर सांग और परंपरित में इनका पूरा निर्वाह नहीं होता और जल्दी हो भी नहीं सकता। दो में से एक का भी पूरा निर्वाह हो जाय तो बड़ी बात है, दोनों का एक साथ निर्वाह तो बहुत कम देखा जाता है। साहश्य से हमारा अभिप्राय बिंव-प्रतिबिंब रूप और साधय से वस्तु-प्रतिवस्तु धर्म है । साहित्य-दर्पणकार का यह उदाहरण लेकर विचार कीजिए रावण-रूप अवर्षण से क्लांत देवता-रूप सस्य को इस प्रकार वाण-रूप अमृत-जल से सींच वह कृष्णरुप-मेघ अंतर्हित हो गया। | इस उदाहरण में रावण और अवर्पण में रूप-सादृश्य नहीं है; केवल साधम्र्य है। इसी प्रकार देवता और सम्य में तथा वाणी और जल में कोई रूप-सादृश्य नहीं हैं, साधम्र्य मात्र है। पर - बिष्णु और काले मेघ में सादृश्य और साधर्म्य दोनों हैं—विष्णु का स्वरूप भी नील जलद का सा है और धर्म भी उसी के समान लोकानंद-प्रदान करता है । पर सांग रूपक में कहीं कहीं तो केवल अप्रस्तुत (उपमान ) दृश्य को किसी प्रकार वढ़ाकर पूरा करने का ही ध्यान कवियों को रहता है। वे यह नहीं देखने जाते कि एक एक अंग या व्योरे में किसी प्रकार का सादृश्य या साधर्म्य है। अथवा नहीं । विनय-पत्रिका के 'सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी’ वाले पद में रूपक के अंगों की योजना अधिकतर इसी प्रकार की है। १ [ रावणावग्रहक्लांतमिति बागमृतेन सः ।। "अभिवृष्य मरुत्सत्यं कृष्णमेघस्तिरोदधे ||-दशम परिच्छेद। ]