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अग्रस्तुत रूप- वस्तु-व्यंग्य उक्तियों की भरमार उस काल से आरंभ हुई जब से ध्वनि' का आग्रह् बहुत बढ़ा, और सब प्रकार की व्यंजनाएँ उत्तम काव्य समझी जाने लगीं। पर वस्तु-त्र्यंजनाएँ ऊहा द्वारा ही की और समझी जाती हैं, सहृदयता से उनका नित्य संबंध नहीं होता । तीसरे प्रकार का विधान भी प्रथम प्रकार के विधान से अधिक उपयुक्त होता है। इसमें हेतृत्प्रेक्षा का सहारा लिया जाता है जिसमें ‘अग्रस्तुत वस्तुओं का गृहीत दृश्य वास्तविक होता है, केवल उसका हेतु कल्पित होता है। हेतु परोक्ष हुआ करता है। इससे उसकी अतथ्यता सामने आकर प्रतीति में बाधा डालती नहीं जान पड़ती। सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक र उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है। इनमें से हेतृत्प्रेक्षा अलंकार उत्कर्ष की व्यंजना के लिये बड़ा शक्तिशाली होता है। लोक में कार्य और कारण एक साथ बहुत ही कम देखे जाते हैं। प्रायः कारण परोक्ष ही रहता है। अतः रूप या क्रिया यदि अपने प्रकृत रूप में हमारे सामने रत्न दी गई तो वह उस प्रभाव का प्रमाण-स्वरूप लगने लगती है जिसे कवि ग्बूब बढ़ाकर दिखाया चाहता है और हम इस बात की छानबीन में नहीं पड़ने जाते कि हेतु ठीक है या नहीं। | भारतीय काव्य-पद्धति में उपमान चाहे उदासीन हों, पर भाव के विरोधी कभी नहीं होते । ‘भाव से मेरा अर्थं वही है जो साहित्य में लिया जाता है। 'भाव' का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्य-बोध मात्र नहीं बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल अवस्थाविशेष है जिसमें शरीर-वृत्ति और मनोवृत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके स्वरूप के अंतर्गत अपनी हानि या अपमान की बात का तात्पर्य-बोध, उग्र वचन और कर्म की प्रवृत्ति का वेग तथा त्योरी चढ़ना, आँखें लाल होना, हाथ उठना ये सब बातें रहती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से इन सब के समष्टि