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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा या अहा के आधार के लिये ऐसी वस्तु सामने लाए हैं जिसका स्वरूप प्राकृतिक है और जिससे सामान्यतः सब लोग परिचित होते हैं। इसी प्रकार एक गीत में एक वियोगिनी नायिका कहती है कि “मेरा प्रिय दरवाजे पर जो नीम का पेड़ लगा गया था वह बढ़कर अव फूल रहा है, पर प्रिय न लौटा। आधार के सत्य और प्राकृतिक स्वरूप के कारण इस उक्ति से कितना भोलापन बरस रहा है ! सुकुमारता की अत्युक्तियाँ अस्वाभाविकता के कारण, केवल ऊहा द्वारा मात्रा या परिमाण के आधिक्य की व्यंजना के कारण, कोई रमणीय चित्र सामने नहीं लातीं । प्राचीन कवियों के ‘शिरीपपुप्पाधिकसौकुमार्य का जो प्रभाव हृदय पर पड़ता है। वह खर्राट और छालेवाले सौकुमार्य का नहीं । कहीं कहीं गुण की अवस्थिति मात्र का दृश्य जितना मनोरम होता है उतना उस गुण के कारण उत्पन्न दृशांतर का चित्र नहीं। जैसे, नायिका के ओठ की ललाई का वर्णन करते करते यदि कोई ‘तद्गुण अलंकार की झांक में यह कह डाले कि जब वह नायिका पीने के लिये पानी अोठों से लगाती है तब वह खून हो जाता है तो यह दृश्य कभी रुचिकर नहीं लग सकता । इंगुर, बिंवा आदि सामने रखकर उस लाली की मनोहर भावना उत्पन्न कर देना ही काफी समझना चाहिए। उस लाली के कारण क्या क्या बातें पैदा हों सकती हैं इसका हिसाब-किताच बैठाना जरूरी नहीं । इसी प्रकार की विरसता-पूर्ण अत्युक्ति ग्रीवा की कोमलता और स्वच्छता के इस वर्णन में भी है पुनि तेहि ठाँव प तिनि रेखा । पूँट जौ पीक लीक सब देखा ।। | इस वर्णन से तो चिड़ियों के अंडे से तुरंत फूटकर निकले हुए बच्चे का चित्र सामने आता है। वस्तु या गुण का परिमाण अत्यंत अधिक बढ़ाने से ही सर्वत्र सरसता नहीं आती । इस प्रकार की