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रस-मीमांसा

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३५० ', रस-मीमांसा. हो जिस प्रकार का प्रस्तुत । व्यापार-समष्टि के समन्वय में कवि की हृदयता का जिस पूर्णता के साथ हमें दर्शन होता है उस पूर्णता के साथ वस्तु, क्रिया आदि के पृथक् पृथक् समन्वय में नहीं। इसी से सुंदर अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शणी होती हैं। चुना हुआ अप्रस्तुत व्यापार जितना ही प्राकृतिक होगाजितना ही अधिक मनुष्य जाति के आदिम जीवन में सुलभ दृश्यों के अंतर्गत होगा--उतना ही रमणीय और अनुरंजनकारी होगा । कोई गोपिका या राधा स्वप्न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृति-व्यापी और गूढ व्यापार सृर ने रखा है, देखिए हमको सपनैहू में सोच । जा दिन तें बिछुरे नंदनंदन ता दिन ते यह पोच । मनौ गोपाल अाए मेरे घर, हँसि करि भुजा गहीं । कहा करों वैरिनि भइ निंदिया, निमिष न शौर रही। ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि नैं ग्रानंदी पिय जानि । सूर पवन मिस निर बिधाता चपल कियो जल यानि ।। स्वप्न में अपने ही मानस में किसी का रूप देखने और जल में अपना ही प्रतिबिंब देखने का कैसा गूढ़ और सुंदर साम्य हैं । इसके उपरांत पवन द्वारा प्रशांत जल के हिल जाने से छात्रा का मिट जाना कैसा भूतन्यापी व्यापार स्वप्नभंग के मेल में लाया गया है! इसी प्रकार प्राकृतिक चित्रों द्वारा सुर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है। जैसे, गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी विरह से तड़फड़ा रही हैं, पर कृष्ण राज-सुख के आनंद में फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात वे इस चित्र द्वारा कहते हैं... सागर-कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल पीन ।