पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३५०

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अप्रस्तुत रूप-विधान रसानुभूति में वोध-वृत्ति का उपादान वरावर रहता है। उसे हम अलग नहीं कर सकते । किसी वस्तु या तथ्य के मार्मिक पक्ष की प्रतीति या बोध लिए हुए ही सच्ची रसानुभूति होती है। वस्तु या तथ्य का मार्मिक पक्ष उस वस्तु या तथ्य से अलग कोई वस्तु नहीं होता, उसी के अंतर्भूत होता है। ‘सत्' के भीतर ज्ञान का विपय भी रहता है, हृदय का भी। उसी सत् को कोई सिर्फ जानकर रह जाता है और कोई उसके समक्ष हृदय निकाल कर रखने लगता है। ‘बह स्त्री मुसकिरा रही है कोई तो यहीं जान कर रह जाता है और कोई अपने को सुधा-सिक्त आलोकरेखा से संपृक्त या शुभ्र मधुधारा में मग्न बतलाता है। क्या कोई कह सकता है कि ‘सुधा-सिक्त आलोक रेखा या ‘शुभ्र मधुधारा ही सब कुछ है, स्त्री के मुसकान का काव्य-विधान में कोई योग नहीं ? यदि ऐसा माना जाय तो फिर कुछ इनी-गिनी प्रियदर्शन, सुंदर, भींपण, प्रकांड अथवा अद्भुत वस्तुओं की विचित्र और अलौकिक योजना मात्र ही काव्य कही जायगी जिसका प्रभाव उतना ही हो सकता है जितना कागज़ की फुलवाड़ी, सजावट के गुलदस्ते या सरकश के तमाशे का होता है। पर मैं काव्य के प्रभाव को इससे कहीं अधिक गंभीर और अंतस्तलस्पशीं मानता हैं, उसे जीवन की एक शक्ति समझता हूँ। | शुद्ध सच्चे काव्य में दो पक्ष अवश्य रहते हैं-जगत् या जीवन का कोई तथ्य तथा उसके प्रति किसी प्रकार की अनुभूति । योरप के कुछ समीक्षक साहित्य-क्षेत्र में नई हवा-चाहे उस हुवा के झोंके में काव्य का प्रकृत स्वरूप ही क्यों न उड़ता दिखाई दे-- बहाने के उद्योग में किस प्रकार इन दोनों को हवा बताने लगे थे यह उपर्युक्त विवरण से समझा जा सकता है। उक्ति या शब्द विधान आधारभूत कोई विषय ही मानने की आवश्यकता नहीं २२