पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३४९

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अप्रस्तुत रूप-विधान प्रस्तुत-अप्रस्तुत-भेद का निरूपण यह मानकर किया गया है। कि किसी काव्य में जगत् यो जीवन से संबंध रखनेवाली कोई न कोई वस्तु या तथ्य अवश्य होता है। उसी वस्तु या तथ्य के हृदय-ग्राह्य पक्ष का प्रत्यक्षीकरण तथा उसके प्रति जागरित हृदय की वृत्तियों का विवरण काव्य का लक्ष्य हुआ करता है। पर इधर कुछ दिनों से योरपीय समीक्षकों में से कुछ लोग, जैसे अभिव्यंजनावादी ( Expressionists ) कांव्य में कोई 'वस्तु या विषय होना स्वीकार नहीं करते । 'कला' शब्द की बढ़ती हुई पुकार के साथ स्वर मिलाने के लिये उन्होंने यह कहना आरंभ किया कि काव्य का कोई विषय या व्यंग्य वस्तु ( या भाव ) नहीं होता अर्थात् जिस रूप में कोई काव्यात्मक वाक्य हमारे सामने आता है उससे अलग कोई आधार-वस्तु हूँढना व्यर्थ है। उनकी इस उक्ति में सत्य की अंश. केवल इतना ही है कि आधार-वस्तु या तथ्य का बोध रसानुभूति नहीं हैं ; उसके मार्मिक पक्ष की अनुभूति का स्वरुप ही काव्यानुभूति तथा उस अनुभूति को उत्पन्न करनेवाला शब्द-विधान ही काव्य है। पर यह कहना कि काव्य में कोई आधार वस्तु या तथ्य की नीयँ होती ही नहीं, वह शून्य में स्थित रहता है, बैठकबाजी के सिवा और कुछ नहीं ।