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रस-मीमांसा

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|. रस-मीमांसा ३३२ हजारों क्या, लाखों दूसरे आदमी ग्रहण करें। जब एक के हृदय . के साथ दूसरे के हृदय की कोई समानता ही नहीं तब एक के भावों को दूसरा क्यों और कैसे ग्रहण करेगा ? ऐसी अवस्था में तो यहीं संभव है कि हृदय द्वारा मार्मिक या भीतरी ग्रहण की बात ही छोड़ दी जाय ; व्यक्तिगत विशेषता के वैचित्र्य द्वारा ऊपरी कुतूहल मात्र उत्पन्न कर देना ही बहुत समझा जाय। हुआ भी यही । और हृदयों से अपने हृदय की भिन्नता और विचित्रता दिखाने के लिये बहुत से लोग एक एक काल्पनिक हृदय निर्मित करके दिखाने लगे। काव्य क्षेत्र नकली हृदय का एक कारखाना हो गया ! ऊपर जो कुछ कहा गया उससे " जान पड़ेगा कि भारतीय काव्य-दृष्टि भिन्न भिन्न बिशेषों के भीतर से सामान्य' के उद्घाटन की ओर बराबर रही है । किसी न किसी ‘सामान्य के प्रतिनिधि होकर ही 'विशेष' इमारे यहाँ के काव्यों में आते रहे हैं। पर योरपीय काव्यदृष्टि इधर बहुत दिनों से विरल विशेष के विधान की ओर रही है । इमारे यहाँ के कवि उस सच्चे वार की झंकार सुनाने में ही संतुष्ट रहे जो मनुष्य मात्र के हृदय के भीतर से होता हुआ गया है। पर उन्नीस शताब्दी के बहुत से विलायती कवि ऐसे हृदयों के प्रदर्शन में लगे जो न कहीं होते हैं और न हो सकते हैं। सारांश यह कि हमारी वाणी भावक्षेत्र के बीच ‘भेदों में अभेद' को ऊपर करती रहीं और उनकी वाणी झूठे-सच्चे विलक्षण भेद खड़े करके लोगों को चमकूव करने में लगी। उन्माद का अभिनय करनेवाले कुछ कवियों का उल्लेख हो चुका है। उनकी नकल वंग भाषा के काव्यक्षेत्र में हुई और उस