पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३२६

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प्रस्तुत रूप-विधान कारण, सबके भावों का आतंबन हो जाता है। विभावादि सामान्य रूप में प्रतीत होते हैं इसका तात्पर्य यही है कि समग्न पाठक के मन में यह भेदभाव नहीं रहता कि यह आलंबन मेरा है या दूसरे का। थोड़ी देर के लिये पाठक या श्रोता का हृद्य लोक का सामान्य हृदय हो जाता है। उसका अपना अलग हृदय नहीं रहता ।। ‘साधारणीकरण' के प्रतिपादन में पुराने आचार्यों ने श्रोता ( या पाठक ) और आश्रय ( भाव-व्यंजना करनेवाला पात्र ) के तादात्म्य की अवस्था का ही विचार किया है जिसमें आश्रय किसी काव्य या नाटक के पात्र के रूप में आलंबन रूप किसी दूसरे पात्र के प्रति किसी भाव की व्यंजना करता है और श्रोता (या पाठक ) उसी भाव का रसरूप में अनुभव करता है। पर रस की एक नीची अवस्था और है जिसका हमारे यहाँ के साहित्यग्रंथों में विवेचन नहीं हुआ है। उसका भी विचार करना चाहिए। किसी भाव की व्यंजना करनेवाला, कोई क्रिया या व्यापार करनेवाला पात्र भी शील की दृष्टि से श्रोता ( या दर्शक ; के किस भाव का—जैसे श्रद्धा, भक्ति, घृणा, रोप, आश्चर्य, कुतूहल या अनुराग का--आलंबन होता है। इस दशा में श्रोता या दर्शक का हृद्य उस पात्र के हृदय से अलग रहता है—अर्थात् श्रोता या दर्शक उसी भाव का अनुभव नहीं करता जिसकी व्यंजना पात्र अपने आलंबन के प्रति करता है, बल्कि व्यंजना करनेवाले उस पात्र के प्रति किसी और ही भाव का अनुभव करता है । यह दशा भी एक प्रकार की रस-दशा ही है--यद्यपि इसमें आश्रय के साथ तादात्म्य और उसके आलंबन का साधारणीकरण नहीं रहता। जैसे, कोई क्रोधी या क्रूर प्रकृति का पात्र यदि किसी निरपराध या दीन पर क्रोध की प्रबल व्यंजना कर