पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३२४

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प्रस्तुत रूप-विधान होगा वह व्यक्ति या वस्तु विशेष ही होगा। सामान्य या 'जाति की तो मूर्त भावना हो ही नहीं सकतीं ।* ।। अब यह देखना चाहिए कि हमारे यहाँ विभावन व्यापार में जो ‘साधारणीकरण' कहा गया है उसके विरुद्ध तो यह सिद्धांत . नहीं जाता। विचार करने पर स्पष्ट हो जायगा कि दोनों में कोई विरोध नहीं पड़ता । विभावादिक साधारणतया प्रतीत होते हैं, इस कथन का अभिप्राय यह नहीं हैं कि रसानुभूति के समय श्रोता या पाठक के मन में लंबन आदि विशेष व्यक्ति या विशेष वस्तु की मूर्त भावना के रूप में न आकर सामान्यतः

  • साहित्य-शास्त्र में नैयायिकों की बाते ज्यों की राय ले नेने से कान्य के स्वरूप-निर्णय में जो बाधा पी है उसका एक उदाहरण, 'शक्तिम' का प्रसंग है। इसके अंतर्गस कहा गया है कि संकेतग्रह, “व्यक्ति' का नहीं होता है, 'जाति' का होता है। तर्क में भाषा के संकेत-१६ Symbolic 851 से ही कम हैं जिसमें अर्थ अहण मात्र पर्याप्त होता है अतः न्याय में तो जाति का संकेत होइना ठीक हैं। पर काव्य में भाषा के प्रत्यक्षीकरण-१ ( Presentative aspect ) से काम लिया जाता है जिसमें शब्द द्वारा पुचित वस्तु का बिबग्रहण होता है-अति उसकी मूति कपना में खड़ी हो जाती है । काव्य-मीमांसा के क्षेत्र में न्याय का यह हाथ बढ़ाना डाक्टर सतीशचंद्र वियोमूषण को भी अटका है। उन्होंने कहा है-It is, however, to be regretted that during the last 500 years the Nyaya has been mixed up with Law, Rhetoric, etc, and thereby has bampered the growth of those branches of knowledge upon which it has grown up as a sort of parasite.

| -Introduction ( The Nyaya Sutras }