पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३२२

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प्रस्तुत रूप-विधान ३०६ विचार-प्रसूत ज्ञान दोनों से सर्वथा निरपेक्ष, स्वतंत्र और स्वतः पूर्ण मानकर चले हैं। वे इस निरपेक्षता को बहुत दूर तक घसीट ले गए हैं। भावों या मनोविकारों तक को उन्होंने काव्य की उक्ति का विधायक अवयव नहीं माना है। पर न चाहने पर भी अभिव्यंजना या उक्ति के अनभिव्यक्त पूर्व रूप में भावों की सत्ता उन्हें स्वीकार करनी पड़ी है। उससे अपना पीछा वै छुड़ा नहीं सके हैं । | काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति की ऐसी दीवार खड़ी हुई, 'विशेष' के स्थान पर सामान्य या विचार-सिद्ध ज्ञान के अ। घुसने का इतना डर समाया कि कहीं कहीं आलोचना भी काव्य रचना के ही रूप में होने लगी । कला की कृति की परीक्षा के लिये विवेचन:पद्धति का त्याग सा होने लगा। हिंदी की मासिक पत्रिकाओं में समालोचना के नाम पर आजकल जो अद्भुत और रमणीय शव्द-योजना मात्र कभी कभी देखने में आया करती है वह इसी पाश्चात्य प्रवृत्ति का अनुकरण है। पर यह भी समझ रखना चाहिए कि काब्य का विषय सदा 'विशेष' होता है, सामान्य नहीं ; वह व्यक्ति' सामने लाता है, “जाति नहीं। यह बात आधुनिक कला-समीक्षा के क्षेत्र में पूर्णतया स्थिर हो चुकी है। अनेक व्यक्तियों के रूप-गुण आदि के emotivity not aesthetically elaborated i.e. impression, Form is elaboration and expression, XXX Sentiments or impressions pass by means of words from the obscure region of the soul into the clarity of the contemplative spirit. -Aesthetics