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रस-मीमांसा

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| रस मीमांसा ‘विचार करने से उद्दीपन दो प्रकार के निकलेंगे आलंबनगत और आलंबन से बाहर के । यहाँ पर हम प्रस्तुत रूप-विधान का आलंबन की दृष्टि से ही विचार करेंगे। इस विचार में आलंबनगत या आलंबन से बाहर, पर आलंबन से लगाव रखनेवाली वस्तुएँ भी आ सकती हैं। आलंबन से हमारा अभिप्राय केवल रस-ग्रंथों में गिनाए आलंबनों से नहीं, उन सब वस्तुओं और व्यापारों से हैं जिनके प्रति हमारे मन में किसी भाव का उदय होता है। जैसे, यदि कहीं कवि प्रकृति के किसी रमणीय खंड़ का वर्णन पूरी तन्मयता के साथ, पूरा ब्योरा देते हुए करता है तो वहाँ वह दृश्य या प्रकृति ही आलंबन होगी। अपने पूर्व प्रबंधों और समीक्षाओं में मैं यह दिखा चुका हूँ कि प्रकृति का वर्णन दोनों रूपों में हो सकती है-आलंबन के रूप में भी, उद्दीपन के रूप में भी । कुमार-संभव के आरंभ का हिमालयचर्णन, मेघदुत का नाना-प्रदेश वर्णन आलंबन के रूप में ही समझना चाहिए। ऋतुसंहार में दिया हुआ प्रकृति-वर्णन उद्दीपन के रूप में है। एक ही कवि कालिदास ने प्रकृति का आलंबन के रूप में भी वर्णन किया है और उद्दीपन के रूप में भी । आलंबन के रूप में जिस वस्तु का ग्रहण होता है भाव उसी के प्रति होता है ; उद्दीपन के रूप में जिसका ग्रह्ण होता है भाव उसके प्रति नहीं रहता, किसी अन्य के प्रति रहता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कोरा प्रकृति-वर्णन भी -रसात्मक होता है। आलंबन मात्र का वर्णन भी बराबर रसात्मक होता है इस बात को पुराने आचार्यों ने भी स्वीकार किया है । १ [ देखिए काव्य में प्राकृतिक दृश्य, चिंतामणि, दूसरा भाग, पृष्ठ ३ और ऊपर पृष्ठ ११० । ]