पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३००
रस-मीमांसा


कल्पना करें, सोंने के पंखवाले पक्षी उड़ाएँ, मरकत-पद्मराग की प्रभावाले पेड़ खड़े करें, सोने की रेत पर चाँदी की धारा बहाएँ; माणिक्य और नीलम की चट्टानें बिछाएँ। पर असली ढाँचे मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, रेत, नदी, चट्टान आदि के ही रहेंगे, उनमें रंग, रूप चाहे जैसे भरें। ऐसी दशा में यह कहना कि प्रत्यक्ष रूपविधान से कवि के काल्पनिक रूप-विधान का कोई संबंध नहीं, बात बनाना ही माना जायगा।

इन ढाँचों को लेकर हम विलक्षण रंग-रूप की वस्तुएँ खड़ी कर सकते हैं, पर यह स्पष्ट समझ रखना चाहिए कि उन वस्तुओं का रूप-रंग प्रकृति से जितना ही दूर घसीटा जायगा उतनी ही वे वस्तुएँ कल्पना में कम देर तक टिकेंगी। घोड़े के मुहँवाले किन्नर, पुखराज की चट्टानें और सोने की रेत के बीच से बहती हुई नदियाँ, आग के बने हुए शरीर एक क्षण के लिये मन में आ सकते हैं, पर सोने की चिड़ियों की तरह चट उड़ जायँगे। पर जैसा कि मैं अपने अन्य प्रबंधों में दिखा चुका हूँ, हृदय के मर्म को स्पर्श करने के लिये, सच्ची और गहरी अनुभूति उत्पन्न करने के लिये यह आवश्यक है कि कल्पना में आई हुई वस्तुएँ कुछ देर टिकें, मन उनका बिंबग्रहण कुछ काल तक किए रहे।

काव्य-भूमि जीवन से, जगत् से परे नहीं है। वह वस्तुव्यापार-योजना जो केवल विलक्षणता, नवीनता या अलौकिकता दिखाने के लिये की जाएगी, जिसमें जगत् या जीवन का कोई मार्मिक पक्ष, गंभीर या साधारण, व्यक्त होता न दिखाई पड़ेगा, व काव्य का ठीक लक्ष्य पूरा न कर सकेगी।

______
______________________
 


१[मिलाइए चिंतामणि, दूसरा भाग, पृष्ठ २४ और ऊपर पृष्ठ १२९।]