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कल्पित रूप-विधान २६६ हास, प्रिय-प्रेमी के लिये मुकुल-मधुप, यौवन-काल या संयोग-काल के लिये मधुमास, शुभ्र के स्थान पर रजत या हँस, दीप्त के स्थान पर स्वर्ण इत्यादि । यह सारा व्यवसाय कल्पना ही का है। | काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिये कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिये अनिवार्य है। काव्य की कोई जुक्ति कान में पड़ते समय जब काव्य-वस्तु के साथ साथ वक्ता या बोद्धव्य पात्र की कोई मूर्त भावना भी खड़ी रहती है तभी पूरी तन्मयता प्राप्त होती है। प्रत्यक्ष रूप-विधान के उपादान से ही कल्पित रूप-विधान होता है। जन्मांध अपने मन में स्पष्ट रूप-विधान नहीं कर सकते । जिस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूति से कलानुभूति या काव्यानुभूति को एकदम अलग कहने की चाल योरप में चली उसी प्रकार प्रत्यक्ष रूप-विधान से कल्पित रूप-विधान को असंबद्ध घोषित करने की रूढ़ि प्रतिष्ठित हुई । 'कल्पना की एक निराली दुनिया कही जाने लगी और कवि लोग दूसरी सृष्टि बनानेवाले विश्वामित्र हुए। पर थोड़ा विचार करने पर यह उक्ति स्तुति-परक ही ठहरती है। सारे वर्ण और सारी रूपरेखाएँ जिनसे कल्पित मूर्ति-विधान होता है वाह्य जगत् के प्रत्यक्ष बोध से प्राप्त हुई हैं। हम मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, तृण, गुल्म, नदी, पर्वत, भूमि, चट्टान इत्यादि देखी हुई वस्तुओं के अतिरिक्त वस्तुओं की कल्पना नहीं कर सकते। लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई (या गहराई) के अतिरिक्त और विस्तार मन में नहीं ला सकते । हम इतना ही कर सकते हैं कि चार मुँहवाले या घोड़े के मुँहवाले मनुष्य की १ [मिलाइए हिंदी साहित्य का इतिहास', प्रवर्धित संस्करण, सं० १९६६,. पृष्ठ ७५० ।]