पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३०८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कहिपत रूप-विधान कल्पना ही द्वारा होती है। आधुनिक पाश्चात्य समीक्षा-क्षेत्र में तो ‘कल्पना' शब्द से अधिकतर अप्रस्तुत-विधायिनी कल्पना ही समझी जाती है। अप्रस्तुत की योजना के संबंध में भी वही बात समझनी चाहिए जो प्रस्तुत के संबंध में हम कह आए हैं अर्थात् उसकी योजना भी यदि किसी भाव के संकेत पर होगी-सौंदर्य, माधुर्य, भीषणता, कांति, दीप्ति इत्यादि की भावना में वृद्धि करनेवाली होगी- तब तो वह् काव्य के प्रयोजन की होगी ; यदि केवल रंग, आकृति, छोटाई, बड़ाई आदि का ही हिंसाब-किताब बैठाकर की जायगी तो निष्फल ही नहीं बाधक भी होगी। भाव की प्रेरणा से जो अप्रस्तुत लाए जाते हैं उनकी प्रभविष्णुता पर कवि की दृष्टि रहती है; इस बात पर रहती है कि इनके द्वारा भी वैसी ही भावना जगे जैसी प्रस्तुत के संबंध में है। केवल शास्त्र-स्थिति-संपादन से कवि-कर्म की सिद्धि समझ कुछ लोगों ने स्त्री की कटि की सूक्ष्मता व्यक्त करने के लिये भिड़ या सिंहिनी की कटिं सामने रख दी है, चंद्र-मंडल और सूयमंडल के उपमान के लिये दो घंटै सामने कर दिए हैं। पर ऐसे अप्रस्तुतविधान केवल छोटाई-बड़ाई या आकृति को ही पकड़कर, केवल चसी का हिसाब-किताब बैठाकर, हुए हैं ; उस सौंदर्य की भावना की प्रेरणा से नहीं जो उस नायिका या चंद्र-मंडल के संबंध में रहीं होगी। यह देखकर संतोष होता है कि हिंदी की वर्तमान . कविताओं में प्रभाव-साम्य पर ही विशेष दृष्टि रहती है। । १. [ सन्धिसन्ध्यङ्गघटनं रसाभिव्यक्त्यपेक्षया । तु केवलया शालस्थितिसम्पादनेच्छया ।।। .. . ::: :: , ध्वन्यालोक, ३-१२। देखिए. ऊपर पृष्ठ ६६ वादटिप्पणी । । |