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रस-मीमांसा

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२६४ स-मीमांसा संज्ञा के नीचे अज्ञात दशा में दबी पड़ी रहती हैं। वे ही इच्छाएँ तृप्ति के लिये कविता के रूप में व्यक्त होती हैं और श्रोताओं को भी तृप्त करती हैं। । इस संबंध में हम यहाँ इतना ही कहना चाहते हैं कि काव्य सर्वथा स्वप्न के रूप की वस्तु नहीं है। स्वप्न के साथ यदि उसका कुछ मेल हैं तो केवल इतना ही कि स्वप्न भी हमारी बाह्य इंद्रियों के सामने नहीं रहता और काव्य-वस्तु भी। दोनों के आविर्भाव का स्थान भर एक है। स्वरूप में भेद है। कल्पना में आई हुई वस्तुओं की प्रतीति से स्वप्न में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की प्रतीति भिन्न प्रकार की होती है। स्वप्न-काल की प्रतीति प्रायः प्रत्यक्ष हों के समान होती है। दूसरी बात यह है कि काव्य में शोक के प्रसंग भी रहते हैं। शोक की वासना की तृप्ति शायद ही कोई प्राणी चाहता हो । उपर्युक्त सिद्धांत का ही एक अंग काम-वासना का सिद्धांत है। जिसके अनुसार काव्य का संबंध और कलाओं के समान कामवासना की तृप्ति से हैं। यहाँ पर इतना ही समझ रखना श्रावश्यक है कि यह मत काव्य को 'ललित कलाओं में गिनने का परिणाम हैं। कलाओं के संबंध में, जिनका लक्ष्य केवल सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न करना है, यह मत कुछ ठीक कहा जा सकता है। इसी से. ६४ कलाओं का उल्लेख हमारे यहाँ काम-शात्र के भीतर हुआ है। पर काव्य की गिनती कलाओं में नहीं की गई है। अब तक जो कुछ कहा गया है वह प्रस्तुत के संबंध में है। पर काव्य में प्रस्तुत के अतिरिक्त अप्रस्तुत भी बहुत अधिक अपे क्षित होता है, क्योंकि साम्यभावना काव्य का बड़ा शक्तिशाली | अस्त्र है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अप्रस्तुत की योजना भी