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स्मृत रूप-विधान ૨૭૭ विशुद्ध स्मृति यों तो नित्य न जाने कितनी बातों का हम स्मरण किया करते हैं, पर इनमें से कुछ बातों का स्मरण ऐसा होता है जो हमारी मनोवृत्ति को शरीर-यात्रा के विधानों की उलझन से अलग करके शुद्ध मुक्त भाव-भूमि में ले जाता है। प्रिय का स्मरण, बाल्यकाल या यौवन-काल के अतीत जीवन का स्मरण, प्रवास में स्वदेश के स्थलों का स्मरण ऐसा ही होता हैं। ‘स्मरण’ संचारी भावों में माना गया है जिसका तात्पर्य यह है कि स्मरण रसकोटि में तुभी आ सकता है जब कि उसका लगाव किसी स्थायी भाव से हो। किसी को कोई बात भूल गई हो और फिर याद हो जाय, या कोई वस्तु कहाँ रखी है, यह ध्यान में आ जाय तो ऐसा स्मरण सक्षेत्र के भीतर न होगा। अब रहा यह कि वास्तविक स्मरणकिसी काव्य में वर्णित स्मरण नहीं-कैसे स्थायी भावों के साथ संबद्ध होने पर रसात्मक होता है। प्रत्यक्ष रूप-विधान के अंतर्गत हम दिखा आए हैं कि कैसे प्रत्यक्ष रूप-व्यापार हमें समग्न करते हैं और कैसे भावों की वास्तविक अनुभूति रस कोटि में आती है। अतः उन्हीं वस्तुओं या व्यापारों का वास्तविक स्मरण रसात्मक होगी जिनकी प्रत्यक्ष अनुभूति रसकोटि में आ सकती है। ऐसी कुछ वस्तुएँ उदाहरण रूप में निर्दिष्ट की जा चुकी हैं। [वस्तुतः ] रति, हास और करुणा से संबद्ध स्मरण ही अधिकतर रसात्मक कोटि में आता है। 'लोभ और प्रीति' नामक निबंध में इम रूप, गुण आदि से स्वतंत्र साहचर्य को भी प्रेम का एक संबल कारण बता चुके हैं। इस साहचर्य का प्रभाव सबसे प्रबल रूप में स्मरण-काल के भीतर • १ [ चिंतामग्यि, पहला भाग, पृष्ठ १३० ।]