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रस-मीमांसा

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२५६ (स-मीमांसा मूच्छित लखनहि लखत नोर नथनन भरि लावत । संमुख निसिचर निरखत ही कोदंड उठावत ।। राभव की वा अवसर को छवि छुटा निहारत । मोहित है सुर गगन बीच तन मन निज वारत ।। यहाँ ‘शोक’ और ‘उत्साह दोनों विरोधी भाव रामविषयक रति भाव के अंग होकर आए हैं, इससे दोष नहीं। अंत में यह फिर कह देना आवश्यक है कि विरोध का उपर्युक्त विचार केवल वहाँ के लिये है जहाँ कवि का उद्दश्य पूर्ण रस की व्यंजना हो । प्रबंध के भीतर बराबर ऐसे अवसर आते हैं जिनमें पात्र दो विरोधी भावों की खींचतान में पड़ा दिखाई देता है। ऐसी भाव-संधि के अवसर पर विरोध का विचार नहीं किया जाता है। वहाँ तो विरोध में ही चमत्कार दिखाई पड़ता है।