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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा चाहिए। पर यहाँ आलंबन के किसी स्वरूप की सत्ता मात्र से प्रयोजन नहीं है। उसके प्रति श्राश्रय या श्रोता के हृदय में किन भावों का उदय हो सकता है यह निश्चय करना चाहिए। शोक, क्रोध, भय या घृणा के अनुभव की दशा में क्या चित्त को इतना अवकाश मिल सकता है कि वह किसी वस्तु या व्यापार की लौकिकता अलौकिकता की ओर जाय ? मैं समझता हूँ, नहीं । इसी से अद्भुत रस के जो उदाहरण पाए जाते हैं वे करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक के साथ नहीं मिलते । अद्भुत भीषणता, अद्भुत क्रोध आदि में अद्भुत की सत्ता का हमें अलग अनुभव नहीं हो सकता। कामदेव को भस्म करने के लिये शिव के तृतीय नेत्र से निकली हुई ज्वाला का वर्णन सुनते ही श्रोता को रौद्र रस का ही अनुभव होगा, व्यापार की अलौकिकता की ओर उसका ध्यान तत्काल न जाएगा । आश्रयगत विरोध कुछ रसों में विरोध उनके भावों के एक ही प्रश्रय में दिखाए जाने से होता है। परस्पर विरुद्ध भावों को एक ही प्रश्रय में एक साथ दिखाना दोनों को किसी काम का न रखना है। जैसे, क्रोध और उत्साह के साथ भय का भी एक ही आश्रय में होना अयुक्त है । युद्ध के प्रति उत्साह प्रकट करनेवाला वीर यदि साथ ही भय भी प्रकट करे तो उसकी वीरता कहाँ रह जायगी ? इसी प्रकार क्रोध दिखाने के साथ ही साथ कोई भय भी दिखाता जाय तो उसका क्रोध दर्शक या श्रोता में रौद्र रस का संचार नहीं कर सकता। आलंबनगत विरोध वहुत से भाव ऐसे होते हैं जो एक ही आलंवन के प्रति एक