पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६६

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सन विरोध-विचार बीभत्स व्यापारों का समावेश होता है। यह युद्ध-कर्म ओता के भाव का भी आलंबन होता हैं यह फिर से कहने की आवश्यकता नहीं, अतः श्रोता अपने आलंबन के स्वरूप के भीतर ही इन सब भावों का रस-रूप में अनुभव करता है जिससे वीरोत्साह का रसरूप अनुभव और भी तीव्र होता है। युद्धोत्साह असाधारण उत्साह है। जो कर्म साधारणतः लोगों के भय, संकोच, दुःख आदि के विषय हुआ करते हैं वे असाधारण लोगों के प्रवृत्यात्मक आनंद के विषय होते हैं घोर साहस, कष्ट-सहिष्णुता आदि युक्त असाधारण उत्साह-ऐसे कर्मों के प्रति उत्साह जिनमें प्राण जाने या भारी हानि पहुँचने की संभावना होती है-ही वीर रस के मूल में रखा गया है, साधारण उत्साह नहीं ( जैसे मित्र की अभ्यर्थना की तैयारी आदि की तत्परता, जिसमें थोड़ा शरीर का आराम या आलस्य हीं छोड़ा जाता है । उत्साह के असाधारणत्व की प्रतीति उत्पन्न करने के लिये-कर्म की भीषणता या कठिनता स्पष्ट करने के लिये-भयानक, दू और बीभत्स वीर रस के साथ लगा दिए जाते हैं। सामान्य उत्साह के साथ इन विजातीय भावों का विरोध ही रहेगा। अब अद्भुत रस को लीजिए। सजातीय विजातीय के , विचार से रौद्र, भयानक, बीभत्स और करुण के साथ इसका विरोध होना चाहिए क्योंकि आश्चर्य आनंदात्मक भावों के अंतगत रखा गया है। पर अद्भुत रस के विरोधी भाव साहित्य-ग्रंथों में गिनाए ही नहीं गए हैं। जान पड़ता है कि साहित्य मीमांसक लोग यह देखकर हिचके हैं कि प्रत्येक भाव का आलंबन अद्भुत हो सकता है और चमत्कारवादियों के अनुसार तो होना ही । [देखिए ऊपर पृष्ठ १६३ ।]