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रस-मीमांसा

हैं। अतः बुद्धि की क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैत भूमि पर पहुँचता है उसी भूमि तक हमारा भावात्मक हृदय भी इस |सत्त्वरस के प्रभाव से पहुँचता है। इस प्रकार अंत में जाकर दोनों पक्षों की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। इस समन्वय के बिना मनुष्यत्व की साधना पूरी नहीं हो सकती। मनुष्येतर प्रकृति के बीच के रूप-यापार कुछ भीतरी भावों या तथ्यों की भी व्यंजना करते हैं। पशु-पक्षियों के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, राग-द्वेष, तोष-क्षोभ, कृपा-क्रोध इत्यादि भावों की व्यंजना जो उनकी आकृति, चेष्टा, शब्द आदि से होती है वह तो प्रायः बहुत प्रत्यक्ष होती है। कवियों को उन पर अपने भावों का आरोप करने की आवश्यकता प्रायः नहीं होती। तथ्यों का आरोप या संभावना अलबत वे कभी कभी किया करते हैं । पर इस प्रकार का आरोप कभी कभी कथन को 'काव्य' के क्षेत्र से • घसीटकर 'सुक्ति' या 'सुभाषित' के क्षेत्र में डाल देता है । जैसे, ‘कौवें सबेरा होते ही क्यों चिल्लाने लगते हैं ? वे समझते हैं। कि सूर्य अंधकार का नाश करता बढ़ा आ रहा है, कहीं धोखे में इमारा भी नाश न कर दे । यह सूक्ति मात्र है, काव्य नहीं । जहाँ तथ्य केवल आरोपित या संभावित रहते हैं वहाँ वे अलं- . • कार रूप में ही रहते हैं। पर जिन तथ्यों का आभास हमें पशुपक्षियों के रूप, व्यापार या परिस्थिति में ही मिलता है वे हमारे भावों के विषय वास्तव में हो सकते हैं। मनुष्य सारी पृथ्वी छेकता चला जा रहा है। जंगल कट-कटकर खेत, गाउँ और नगर बनते चले जा रहे हैं। पशु-पक्षियों का भाग छिनता चला १ [ वयं काका वयं काका जुत्पन्तीति प्रगे द्विकाः । तिमिररिस्तमो हुन्यादिति शङ्कितमानसाः ॥]