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| काव्य वाष्पसँछन्नसलिला सतविज्ञेयसारसा: । हिमा बालुकैतीरैः सरितो भान्ति साम्प्रतम् ।। जरा-जर्जरितैः पझैः शीकेसरकणिकैः ।। नालशेषहिंमध्वस्तैर्न भान्ति कमलाकराः ।। * | [ रामायण, अरण्यकांड, सर्ग १६ । ] मनुष्येतर बाह्य प्रकृति का इसी रूप में ग्रहण ‘कुमारसंभव के आरंभ तथा 'रघुवंश के बीच बीच में मिलता हैं । नाटक यद्यपि मनुष्य ही की भीतरी-बाहरी वृत्तियों के प्रदर्शन के लिये लिखे जाते हैं और भवभूति अपने मार्मिक और तीव्र अंतर्वृत्ति विधान के लिये ही प्रसिद्ध हैं, पर उनके उत्तररामचरित' में कहीं कहीं बाह्य प्रकृति के बहुत ही सांग और संश्लिष्ट खंड-चित्र पाए जाते हैं। पर मनुष्येतर बाह्य प्रकृति को जो प्रधानता मेघदूत' में मिली है वह संस्कृत के और किसी काव्य में नहीं । ‘पूर्वमेघ' तो यहाँ से वहाँ तक प्रकृति की ही एक मनोहर झाँकी या भारतभूमि के स्वरूप का ही मधुर ध्यान है। जो इस स्वरूप ॐ वन की भूमि, जिसकी हरी हरी घास ग्रोस गिरने से कुछ कुछ गीली हो गई है, तरुण धूप के पड़ने से कैसी शोभा दे रही है। अत्यंत प्यासी जंगली हाथी बहुत शीतल जल के स्पर्श से अपनी सँड सिकोड़ लेता है। बिना फूल के वन-समूह कुहरे के अंधकार में सोए से जान पड़ते हैं। नदियाँ, जिनका जल कुहरे से ढका हुआ है और जिनमें सारस पक्षियों का पता केवल उनके शब्द से लगता है, हिम से आई बालू के तटों से ही पहचानी जाती हैं। कमल, जिनके पत्ते जीर्ण होकर झड़ गए हैं, जिनकी केसर-कर्णिकाएँ टूट-फूटकर छितरा गई हैं, पाले से ध्वस्त होकर नाल मात्र खड़े हैं । [ वही, पृष्ठ १४-१५।]. .