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भावों का वर्गीकरण के रूप में है। मनोविज्ञानियों को ऊपर लिखी संबंध-व्यवस्था में मूल या जनक भाव स्वप्रवर्तित अन्य भाव के उदय के समय अपना स्वरूप विसर्जित कर देता है। जैसे, जिससे हमारा प्रेम है उसे पीड़ित करनेवाले पर जिस समय हमें क्रोध आएगा उस समय रति-भाव की अनुभूति के लिये कोई अवकाश चित्त में न रहेगा। पर साहित्य में रति के जो संचारी कहे गए हैं उनके प्रतीति-काल में रति का आभास बना रहेगा । नायिका मान समय में जो क्रोध प्रकट करेगी वह ऐसा बलवान् न होगा कि ‘रति-भाव’ को सर्वथा हटा सके। अब देखना यह चाहिए कि वह व्यवस्था क्या है जिसके अनुसार ‘भावों को ऐसा अविचल पद प्राप्त रहता है कि स्वप्रवर्तित अगंतुक भावों के आ जाने से भी उनका स्वरूप सर्वथा तिरोहित नहीं होता। मनोविज्ञानियों . के संबद्ध भावों की आलोचना करने से प्रकट होता है कि उनके । विषय यदि प्रवर्तक भाव के आलंबनों से भिन्न हों तो भी आश्रय का ध्यान मुख्यतः उन्हीं की ओर रहता है। पर संचारियों का बिपय यदि प्रधान भाव के आलंबन से भिन्न हुआ तो भी उनकी ओर ध्यान मुख्यतः नहीं होता, अर्थात् वे विषय आलंबन नहीं कहे जा सकते। इसी आलंबन की स्थिरता के आधार पर भारतीय साहित्यिकों ने 'भाव' की अविचलता या स्थायित्व को खड़ा किया है। आलंबन ही वह कील हैं जिससे प्रधान भाव हटने नहीं पाता।