पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२१२

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भावों का वर्गीकरण पहले कह आए हैं कि आधुनिक मनोविज्ञानियों ने क्रोध, भय, आनंद और शोक को मूल भाव कहा है। इनमें से साहित्य के ‘भावों की गिनती में आनंद को छोड़ और सब आ गए हैं। शोक के रखे जाने और आनंद के न रखे जाने का कारण क्या है ? इसका एकमात्र उत्तर यहीं हो सकता है कि ‘रसविधान' की दृष्टि से ऐसा किया गया है। साहित्यिकों का सारा भाव-निरूपण रस के विचार से किया गया है। आश्रय के निस भाव की व्यंजना से श्रोता या दर्शक के चित्त में भी आलंबन के प्रति वही भाव साधारण्याभिमान से उपस्थित हो सकता है। उसी को रस का प्रवर्तक मानकर आचार्यों ने प्रधान भाव की कोटि में रखा है। इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए। शोक का आलंबन ऐसा होता है कि वह मनुष्य मात्र को सुब्ध कर सकता है, पर आनंद में यह बात नहीं हैं। किसी अज्ञात और अपरिचित व्यक्ति को भी प्रिय के मरण आदि पर विलाप करते सुन सुननेवालों की आँखों में आँसू आ जाते हैं, पर किसी को पुत्र जन्म पर आनंद प्रकट करते देख. राह चलते आदमी आनंद से नाच नहीं उठते । किसी के आनंदोत्सव में उन्हीं का हृदय पूर्ण योग देता है जिनसे उसका लगाव या प्रेम होता है, पर किसी के शोक में योग देने के लिये मनुष्य मात्र का हृदय प्रकृति द्वारा विवश हैं। इसी से आनंद को उस के प्रधान प्रवर्तक भावों में स्थान न देकर आचार्यों ने हर्ष को केवल संचारीरूप में रखा है। इस युक्तिपूर्ण विधान से उनकी सूक्ष्मदर्शिता का पता चलता है। यही कारण ईर्षा को भी प्रधान भावों में स्थान न देने का है। यद्यपि ईर्षा विषयोन्मुख होने के कारण मनोविज्ञान की दृष्टि से 'भाव' ( स्थायी Sentiment ) ही है, १ [ देखिए 'भाव', पृष्ठ १६६ ! ]