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रस-मीमांसा

समेटकर मनुष्य अपने हृदय को शेष सृष्टि से किनारे कर ले या स्वार्य की पशुवृत्ति में ही लिप्त रखे तो उसकी मनुष्यता कहाँ रहेगी ? यदि वह लहलहाते हुए खेतों और जंगलों, हुरी घसि के ‘बीच घूम-घूमकर बहते हुए नालों, काली चट्टानों पर चाँदी की तरह ढलते हुए झरनों, मंजरियों से नदी हुई अमराइयों और पटपर के बीच खड़ी झाड़ियों को देख्न क्षण भर लीन न हुआ, यदि कलरव करते हुए पक्षियों के आनंदोत्सव में उसने योग ने दिया, यदि खिले हुए फूलों को देख वह न खिला, यदि सुंदर रूप सामने पाकर अपनी भीतरी कुरूपता का उसने विसर्जन न किया, यदि दीन-दुखी का आर्तनाद सुन वह न पसीजा, यदि अनाथों और अबलाओं पर अत्याचार होते देख क्रोध से न तिलमिलाया, यदि किसी बेढब और विनोदपूर्ण दृश्य या उक्ति पर न हँसा तो उसके जीवन में रह क्या गया ? इस विश्वकाव्य की रसधारा में जो थोड़ी देर के लिये निमग्न न हुआ उसके जीवन को मरुस्थल की यात्रा ही समझना चाहिए।

काव्यदृष्टि कहीं तो

(१) नरक्षेत्र के भीतर रहती है,

(२) कहीं मनुष्येतर बाह्य सृष्टि के और

(३) कहीं समस्त चराचर के।

( १ ) पहले नरक्षेत्र को लेते हैं। संसार में अधिकतर कविता इसी क्षेत्र के भीतर हुई है। नरव की बाह्य प्रकृति और अंतःप्रकृति के नाना संबंधों और पारस्परिक विधानों का संकलन या उद्भावना ही काव्यों में मुक्तक हों या प्रबंध-अधिकतर पाई जाती है।