पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२०४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भाव अच्छी तरह खप जाती हैं, पर रस-प्रधान प्रबंध-काव्यों में वे रस का परिपोषण नहीं करती। | ‘शीलदशा' का उपयोग काव्य में कहाँ तक होता है अब यह देखना चाहिए। यों देखने में रस-योजना में उसका प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखाई पड़ता। रूढ़ि के अनुसार पूर्ण रस की निष्पत्ति में ‘अनुभव आवश्यक होता है और अनुभाव केवल ‘भावदशा’ का व्यंजक होता हैं । मुक्तक या उद्भट में जो रस की रस्म अदा की जाती है उसमें शीलदशा का समावेश नहीं होता । उसका उद्देश्य तो क्षणिक मनोरंजन मात्र होता है। पर उच्च लक्ष्य रखनेवाले, मनुष्य की प्रकृति का संस्कार या निर्माण करने की सामथ्ये रखनेवाले प्रबंध-काव्य या नाटक के चरित्र-चित्रण का आधार ‘शीलदशा' ही हैं। रामायण में राम की धीरता और गंभीरता, लक्ष्मण की उग्रता और असहनशीलता, बड़ों के प्रति भरत की श्रद्धा-भक्ति इत्यादि का चित्रण भिन्न भिन्न अवसरों पर भिन्न भिन्न व्यक्तियों के प्रति किए हुए व्यवहारों के मेल से ही हुआ है। आलंबन का स्वरूप संघटित करने में उपादान रूप होकर ‘शीलदशा’ रसोत्पत्ति में पुरा योग देती हैं। आश्रय की दृष्टि जिस प्रकार आलंबन के बाह्य रूप परै जाती है उसी प्रकार उसके आभ्यंतर स्वरूप पर भी जाती हैं। इस आभ्यंतर स्वरूप की योजना भिन्न भिन्न शीलों से ही होती है। आलंबन के रूप की धारणा से जिस प्रकार आश्रय में अश्रु, पुलक आदि अनुभाव प्रकट होते हैं उसी प्रकार उसके शील की धारणा से भी। जिसमें शील को देख सुनकर इस प्रकार ये अनुभाव न प्रकट हों गोस्वामी तुलसीदासजी उसे जड़ समझते हैं। वे साफ कहते हैं कि