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रस-मीमांसा

१८४ रस-मीमांसा के विरुद्ध युद्ध-यात्रा के समय किसी योद्धा के हृदय में जो उमंग होती है उसमें अपने पराक्रम का ध्यान प्रधान रहता है, शत्रु का नहीं । दिग्विजय या अश्वमेध की यात्रा के आरंभ में कोई शत्रु निश्चित नहीं रहता पर उत्साह बराबर प्रकट किया जाता है, जिससे श्रोता या दर्शक को वीर रस की पूर्ण अनुभूति होती है । इसी प्रकार दानवीर और दयावीर में यदि दानपात्र की ओर ध्यान प्रधान माना जाय तो भक्ति या श्रद्धा का और यदि दयापात्र की ओर ध्यान प्रधान माना जाय तो दया या कणा का भाव प्रधान होगा। इससे उत्साह के यदि आलंबन हो सकते हैं तो युद्ध, दान, दया आदि के कर्म [* धर्मवीर में तो धर्म अर्थात् धर्मकार्य को लंबन मानना ही पड़ा है। किसी एक कर्म की विद्यमानता एक अवसर के आगे नहीं रह सकती। उत्साह के एक अवसर के उपरांत दुसरे अवसर पर कर्म भी दसरा हो जायगा। इस कारण उत्साह जब अनेकावसर-व्यापी स्थायित्व की ओर चलेगा तब वह ‘शील दशा' को ही प्राप्त समझा जायगा। और भावों के समान किसी एक लंबन के प्रति उसकी ‘स्थायी दशा' नहीं कहीं जा सकती। जो वीर होगा वह किसी एक ही व्यक्ति के प्रति नहीं, उपयुक्त व्यक्तिमात्र के साथ वीरता दिखलानेवाले ही वीर कहलाते हैं।' 'भाव' के संबंध में यह कहा जा चुका है कि वह आलंबन प्रधान होता है अर्थात् उसमें आलंबन की भावना ‘प्रत्यय' के रूप में परिस्फुट होती है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक भाव एक ही आलंबन के प्रति स्थायी दशा को प्राप्त हो सकता है। जब कि ये बातें उत्साह में नहीं घटतीं तो वह मन का वेग

  • Interest transfered from the end to the naeans,