पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५४
रस-मीमांसा



पर आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओं की लज्जा का एक विषय हो रहा हैं। वे देश के स्वरूप से अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची का स्तूप देखने गया। यह स्तूप एक बहुत सुंदर छोटी सी पहाड़ी के ऊपर है। नीचे छोटा मोटा जंगल है; जिसमें महुए के पेड़ भी बहुत से हैं। संयोग से उन दिनों वहाँ पुरातत्त्व विभाग का कैंप पड़ा हुआ था। रात हो जाने से उस दिन हम लोग स्तूप नहीं देख सके; सबेरे देखने का विचार करके नीचे उतर रहे थे। वसंत का समय था। महुए चारों और टपक रहे थे। मेरे मुंह से निकला-“महुओं की कैसी महक आ रही है !'' इस पर लखनवी महाशय ने चट मुझे रोककर कहा- “यहाँ महुए-सहुए का नाम न लीजिए, लोग देहाती समझेगे। मैं चुप हो रहा ; समझ गया कि महुए का नाम जानने से बाबूपन में बड़ा भारी बट्टा लगता है।' पीछे ध्यान आया कि यह वहीं लखनऊ है जहाँ कभी यह पूछनेवाले भी थे कि गेहूँ का पेड़ आम के पेड़ से छोटा होता है या बड़ा ।

हिंदूपन की अंतिम झलक दिखाने वाले थानेश्वर, कन्नौज, दिल्ली, पानीपत आदि स्थान उनके गंभीर भावों के आलंबन हैं जिनमें ऐतिहासिक भावुकता है । जो देश के पुराने स्वरूप से परिचित हैं, उनके लिये इन स्थानों के नाम ही उद्दीपन स्वरूप हैं। इन्हें सुनते ही उनके हृदय में कैसे कैसे भाव जाग्रत होते हैं। नहीं कह सकते । भारतेंदु का इतना ही कहना उनके लिये बहुत है कि-

-----------------------------------------------------------------‐--------------------

१[मिलाइए 'लोभ और प्रीति' शीर्षक निबंध,चिंतामणि,पहला भाग, पृष्ठ १०४ से १०७ तक]।