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रस-मीमांसा



इन अलंकारों के द्वारा कवियों ने अधिकतर विलासिता तथा कृत्रिम शोभा और सजावट का आरोप करके प्रकृति की पवित्रता में पाठक के मन को लीन होने का रास्ता बंदकर दिया है। यदि कहीं हरी घास से ढँकी हुई भूमि का जिक्र आ गया है तो कविजी ने पाठक को उसे पारसी कालीन या पन्ने की फर्श समझने की आज्ञा दे दी है। यदि उदित होता हुआ चंद्रमंडल दिखाया है तो उसे फानूस या लैंप का ग्लोब मानने को कहा है। तात्पर्य यह की भोग-विलास की जो सामग्री कोठरी के भीतर हमें मिलती है उसी की ओर खींचकर कविजी फिर ले जाते हैं। मनुष्य अपने उठाए हुए घेरे या प्रवर्तित कार्य-कलाप से कुछ देर बाहर निकलकर प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र का निरीक्षण करे प्राचीन कवि जहाँ इस बात का उद्योग करते थे वह नए कैड़े के कवि उसे ढकेलकर फिर उसी घेरे के भीतर बंद करने का प्रयत्न करने लगे। प्रकृति के प्रति यह उदासीनता नवीनों का लक्षण है।

मैं समझता हूँ, अब यह दिखाने के लिये और अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं है कि वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि प्राकृतिक दृश्य हमारे राग या रति-भाव के स्वतंत्र आलंबन हैं, उनमें सहृदयों के लिये सहज आकर्षण वर्तमान है। इन दृश्य के अंतर्गत जो वस्तुएँ और व्यापार होंगे उनमें जीवन के मूलस्वरूप और मूल-परिस्थिति का आभास पाकर हुमारी वृत्तियाँ तल्लीन होती हैं। जो व्यापार केवल मनुष्य की अधिक समुन्नत बुद्धि के परिणाम होंगे, जो उसके आदिम जीवन से बहुत इधर के होंगे, उनमें प्राकृतिक या पुरातन व्यापारों की सी तल्लीन करने की शक्ति न होगी । जैसे, ‘सीतल गुलाब-जल भरि चहुबचन में 'बैठे हुए कविजी की अपेक्षा तलैया के कीचड़ में बैठकर जीभ निकाल निकाल हाँफते हुए कुत्ते का अधिक प्राकृतिक व्यापार कहा