पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१४२

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जो भाव चित्त में उदित हुआ वह वाच्य, द्वारा स्पष्ट कह दिया गया । यही बात यदि यों कही जाय कि 'तालाब के उस किनारे पर खिले कमल ऐसे लगते हैं मानों प्रभात के गगन-तट पर की तलाई ' तो सौंदर्य का भाव स्पष्ट न कहा जाकर दूसरी ऐसी वस्तु सामने ला दी गई जिसके साथ भी वैसे ही सौंदर्य काभाव लगा हुआ है। एक में भाव वाच्य द्वारा प्रकट किया गया । दूसरे में अलंकार-रूप व्यंग्य द्वारा। इससे स्पष्ट है कि दृश्य-वर्णन करते समय कवि उपमा, उत्प्रेक्षा आदि द्वारा वणर्य वस्तुओं के मेल में जो दूसरी वतुएँ रखता है सो केवल भाव को तीव्र करने के लिये । अतः वे दूसरी वस्तुएँ ऐसी होनी चाहिए जिनसे प्रायः सय मनुष्यों के चित्त में वे ही भाव उदित होते हों जो वणर्य वस्तुओं से होते हैं। यों ही खिलवाड़ के लिये बार बार प्रसंगप्राप्त वस्तुओं से श्रोता या पाठक का ध्यान हटाकर दूसरी वस्तुओं की ओर ले जाना, जो प्रसंगानुकूल भाव उद्दीप्त करने में भी सहायक नहीं काव्य के गांभीर्य और गौरव को नष्ट करता है, उसकी मर्यादा बिगाड़ना है। इसी प्रकार बात बात में 'अहाहा ! कैसा मनोहर है ! कैसा आह्लादजनक है ! ' ऐसे भावोद्गार भी भद्देपन से खाली नहीं, और काव्य-शिष्टता के विरुद्ध हैं। तात्पर्य यह कि भावों की अनुभूति में सहायता देने के लिये केवल कहीं कहीं उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग उतना ही उचित है जितने से बिंब ग्रहण करने में, दृश्य का चित्र हृदयंगम करने में, श्रोता या पाठक को बाधा न पड़े ।

जहाँ एक व्यापार के मेल में दूसरा व्यापार रखा जाता है वहाँ या तो ( क ) प्रथम व्यापार से उत्पन्न भाव को अधिक तीव्र करना होता हैं ; जैसे, हिलती हुई मंजरियाँ मानों भौंरों को पास