पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१३२

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विभाव चाह करता हैं। कालिदास ने अत्यंत प्राकृतिक ढंग से रथ को धूल के आगे निकाला तो भूषण ने घोड़े को छोड़े हुए तीर से ३. एक तीर आगे कर दिया। पर मुबालगा जहाँ हद से ज्यादा । बढ़ा कि मजाक हुआ। खेद है कि उर्दू की शायरी ऐसे ही । मजाक की सूरत में आ गई। सारांश यह कि केवलं असाधारणत्व-दर्शन की रुचि सच्चो सहृदयता की पहचान नहीं है । शोभा और सौंदर्य की भावना के साथ साथ जिनमें मनुष्यजाति के उस समय के पुराने सहचरों की वंशपरंपरागत स्मृति वासना के रूप में बनी हुई हैं, जब वह प्रकृति के खुले क्षेत्र में विचरतीं थीं, वे ही पूरे सहृदय कहे जा सकते हैं। पहले कह आए हैं कि वन्य और ग्रामीण दोनों प्रकार के जीवन प्राचीन हैं, दोनों पेड़-पौदों, पशु-पक्षियों, नदीनालों और पर्वत-मैदानों के बीच व्यतीत होते हैं, अतः प्रकृति के अधिक रूपों के साथ संबंध रखते हैं । इम पेड़-पौदों और पशु-पक्षियों से संबंध तोड़कर नगरों में आ बसें ; पर उनके बिना रहा नहीं जाता। हम उन्हें हर वक्त पास न रखकर एक घेरे में * बंद करते हैं, और कभी कभी मन बहलाने को उनके पास चले जाते हैं। हमारा साथ नसे भी छोड़ते नहीं बनता। कबूतर हमारे 'बर के छज्जों पर कुंव से सोते हैं

  • , *" [मोद्ध तैरपि जोभिरजनीया धावन्त्यमी मृगजवादमयेव ।थ्याः।

-- अभिज्ञानशाकुन्तल, १८ ] २[ जिन चढ़ि आये क वजाइत सोर, तीर एक भरि तऊ तीर पीछे ही परत है। -- विभूषण, ३७३ ।]