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रिचर्ड्स् की व्याख्या में इसके संकेत मिलने लगे हैं। पूर्व जिस रस-भूमि तक कभी का पहुँच चुका , पश्चिम को अभी वहाँ तक पहुँचना है।

आचार्य शुक्ल भारतीय परंपरा के अनुसार रस को ही काव्य में मुख्य मानते थे। उसी वक्रोक्ति को काब्य स्वीकार करते थे जो भाव-प्रेरित हों । पर इसके साथ ही वे काव्य का चमत्कार उक्ति में ही मानते थे। काव्य का सारा चमत्कार उक्ति में ही हैं, पर कोई उक्ति काव्य तभी हैं जब उसके मूल में भाव हो। काव्य अभिव्यक्ति है यह पूर्व को भी मान्य है, केवल पश्चिम को नहीं। अभिव्यक्ति रस-संप्रदाय को भी स्वीकृत है। अभिनवगुप्तपादाचार्य का अभिव्यक्ति बाद कर्ता और ग्राहक दोनों को सामने रखता है; पर 'काव्य-वस्तु का-विभाव का-कुछ भी महत्व नहीं इसे क्रोचे कह सकता है, यह न कुंतक को मान्य है न अभिनवगुप्त को । विभवन-व्यापार रस-प्रक्रिया की सुदृढ़ भूमिका है। विभाव ही रस का हेतु हैं। काव्य-वस्तु ( मैटर ) कुछ नहीं, अभिव्यक्ति ( फार्म ) ही सब कुछ है, इसे भारत के वे अलंकारवादी भी नहीं मानते जिनके विचार से काव्य में सौंदर्य ही प्रमुख है। आधुनिक जिज्ञासा के समाधान के लिये शुक्लजीने पश्चिमी मनाविज्ञान के क्षेत्र में भी अवश्य प्रवेश किया है।

भारतीय शास्त्राभ्यासी रस-मीमांसा में आत्मा को भी ग्रहण करते हैं । पंडितराज जगन्नाथ ने इस प्रक्रिया को अद्वैत वेदांत की प्रक्रिया में ढालकर इसे आध्यात्मिक ही सिद्ध किया है, पर प्राचार्य शुक्ल काव्य-विवेचना के लिये मनोमय कोष के आगे लाने की अपेक्षा नहीं समझते । इसको अलौकिक कहना उनकी दृष्टि में अर्थवाद मात्रहै। मन का रागद्वेष के बंधन से छूटकर शुद्ध भाव की अनुभूति में लीन होना अपने क्षेत्र से बाहर जाना नहीं है। मन इस मुक्तावस्था में -इस मुक्तिलोक में-विहार किया करता है। इस मुक्तिलोक के विचरण को अलौकिक व्यापार कहना उन्हें मान्य नहीं । यहाँ और अधिक न कहकर इतना ही कह देना पर्याप्त होगा >br<