पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/११०

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काम् का प्रपत्र दिया--बिना इसका निर्देश किए कि जिस पर त्यौरी बदली जा रही है वह कैसा है तो बस उनकी वाहवाही हो गई। क्या इसके भी कहने की आवश्यकता है कि ऐसी रचना मनुष्य के हृदय की भीतरी तह तक नहीं पहुँचती केवल ऊपरी दिलबहलाव भर करती है ? इसी हलकेपन के कारण बहुत से लोग काव्य को विलास की सामग्री और अमीरों के शौक की चीज समझने लगे। भदों और कवियों में कोई भेद ही न रह गया । भोज ऐसे राजा बात बनानेवाले खुशामदियों को कवि कहकर लाखों का पुरस्कार देने लगे। उसी भोज की तारीफों के पुल बाँधनेवाले—उसके प्रताप को सूर्य से भी बढ़कर बतानेवाले चारों ओर से आते थे जिसके सामने ही विदेशी इस देश में आकर भारतीयों की इतनी दुर्दशा करने लगे थे। जहाँ आचार्यों ने पूर्ण रस माना है वहाँ तीन हृदयों का समन्वय चाहिए। आलंबन द्वारा भाव की अनुभूति प्रथम तो कवि में चाहिए फिर उसके वर्णित पात्र में और फिर श्रोता या पाठक में । विभाव द्वारा जो 'साधारणीकरण' कहा गया है। वह तभी चरितार्थ हो सकता है। यदि श्रोता के हृदय में भी प्रदर्शित भाव का उदय न हुआ—उस भाव की स्वानुभूति से भिन्न प्रकार का आनंद रूप अनुभव हुआ तो 'साधारणीकरण कैसा ? क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि के वर्णन यदि श्रोता के हृदय में आनंद का संचार करें तो या तो श्रोता सहृदय नहीं या कवि ने बिना इन भावों का स्वयं अनुभव किए उनको रूप प्रदर्शित किया है। कवि को ‘कलानिपुण’ और ‘सहृदय' दोनों होना चाहिए। १. [ भौनप्रतापं तु विषय घात्रा शेर्निरस्तैः परिमाणुभिः किम् । हरेः करेऽभूत्पविरम्बरे च भानुः पयोधेदरे कृशाः ।। -भोजप्रबंध, ६३ । ]